वर्तमान ये भूल ना जाना

लोकतंत्र लोक से चलता है। पर लोक कैसे चलता है? प्रचार से? अधिप्रचार से? या समझ बूझ से – यथार्थ की निष्पक्ष समीक्षा करते हुए उज्वल और ईमानदार भविष्य के व्यावहारिक सपने बुनता हुआ!

क्या लोक जागरूक रहता है? क्या लोक अपने आज के हालात को तब भी याद रखता है जब उसके हाथ में समय बदलने की ताकत होती है? या लोक जज़बाती हो जाता है और भावनाओं में बहते हुए भूल जाता है की सत्ता की असल बागडोर उसके अपने हाथों में है।

एक कविता यह याद दिलाते रहने के लिए की अगर लोक अपने ‘आज’ से व्यथित है तो उसे इस ‘आज’ को याद रखना होगा। जो सवाल आज उठ रहे हैं उसे उठाते रहना होगा। भविष्य तभी बदलेगा जब बात इतिहास की नहीं वरन इस वर्तमान की होगी।

वर्तमान ये भूल ना जाना

बादल हट जब धूप खिलेगी,
तन को ताकत ताप मिलेगी,
वर्तमान ये भूल ना जाना,
अस्पताल तुम वहीं बनाना।

सोते राजा की लंबी दाढ़ी,
मृत प्रशासन की गायब नाड़ी,
साँसे ये जो उखड़ रही हैं,
जिन्दगियाँ जो बिखर रहीं हैं,
वर्तमान ये भूल ना जाना,
अस्पताल तुम वहीं बनाना।

फकीरों ने कई स्वप्न दिखाए,
मंदिर मस्जिद काम न आए,
अपनों से अपनों का द्वन्द,
जीवन मरण का ये शतरंज,
वर्तमान ये भूल ना जाना,
अस्पताल तुम वहीं बनाना।

बादल हट जब धूप खिलेगी,
तन को ताकत ताप मिलेगी,
वर्तमान ये भूल ना जाना,
अस्पताल तुम वहीं बनाना।

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