बलि के बकरे

लगभग सभी विचारधाराओं की नींव में हिंसा छुपी है – चाहे हिंसा बल की हो या शब्दों की। सत्ता की सभी व्यवस्थाओं में भी हिंसा निहित है। और जहाँ हिंसा होते है वहाँ होते हैं बलि के बकरे। हम समय के सत्ता बदल देते हैं, विचारधारा बदल देते हैं पर एक बलि-विहीन व्यवस्था स्थापित नहीं कर पाते। बकरों का बलि होना शायद सबसे स्थायी मानव परंपरा है।

बलि के बकरे

पहला बकरा वो कटा
जिसका नाम अलग था;
दूसरा बेचारा वो बकरा
जिसका काम अलग था;

फिर निपटा बकरा वो
जिसका धाम अलग था;
चौथा वो ऐंठता बकरा
जिसका दाम अलग था;

पाँचवा बकरा था पढ़ा लिखा
बस आयाम अलग था;
छठा बकरा तो साथी था
बस उसका जाम अलग था;

सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह…
सब कुछ छँटना कटना है;
क्रम-विकास के मानव डगर में
सत्ता एक दुर्घटना है!

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