बोलना जरुरी है
बचपन से ही लोगों को कहते हुआ सुना है – मितभाषी बनो! कम बोलो, अच्छा बोलो! कई मायनों में यह बात सही है। पर कई मायनो में गलत भी। कम बोलना अच्छी बात है। पर केवल तब तक, जब तक मन मस्तिष्क सुन्न नहीं हैं।
जब तक मन में चिंतन है, वाद विवाद है, प्रश्न हैं, संघर्ष है, कम बोल कर भी आसानी से काम चल सकता हैं। पर अगर मन में सवाल ही नहीं है तो उसके दो मुख्य कारण हो सकते हैं – या तो आपको समस्त उत्तर मिल चुके हैं, या फिर आपकी प्रश्न करने और उत्तर ढूँढने में रुचि नहीं बची। यह भी हो सकता है की आप प्रश्न करना या उत्तर ढूँढना भूल चुके हैं।
यहाँ बोलने से मेरा तात्पर्य अनर्गल वार्तालाप से नहीं है। बोलना अर्थात सवाल करना, आवाज़ उठाना, वाद विवाद करना, उत्तर देना… बोलना अर्थात अपने विचारों को शब्द देना, अपने मतों को स्पष्ट करना… बोलना अर्थात सही गलत को परिभाषित करने की कोशिश करना, अपने जीवन का अर्थ तलाशना… बोलना अर्थात अपने आक्रोश को जाहिर करना, अपनी प्रतिकिया को स्पष्ट करना… बोलना अर्थात अपने सपनों को शब्दों में सजीव करना, अपनी सोच को विस्तृत करना… बोलना अर्थात प्रेम करना… बोलना अर्थात जीना!
पर कई बार ऐसा भी लगता है कि कुछ लोग केवल बात या वाद विवाद करने के लिए बात करते हैं। ऐसा बर्ताव तब बिलकुल अच्छा नहीं लगता जब चर्चा उन विषयों पर हो जिन्हें आप बहुत करीब से महसूस करते हैं। मुझे लगता हैं की अगर केवल बात करने के लिए ही बात करनी है तो क्यों न छिछोरी गप्प मार ली जाए। क्यों बिना बात में संस्कृति, न्याय, समानता, नैतिकता, पर्यावरण, आदि को नग्न किया जाए। इस विषयों को यूँ थकाना ठीक नहीं क्योंकि ऐसा करने से इनकी शक्ति क्षीण हो जाती है। कुतर्कों में लिपटी हुई बातें बस बातें ही रह जाती हैं जिसके कारण लोगों का बातों से विश्वास उठने लगता है। यूँ हार कर भी शायद कई लोग मितभाषिता के पक्षधर बन जाते हैं!
किसी समय काल में जब ध्रुवीकरण अधिक हो जाता है तब वाद विवाद करते हुए कई बार अपने करीबी ही नाराज हो जाते हैं। ऐसे में कई बार महसूस होता है कि शायद चुप रहना ज्यादा बेहतर है। आखिर बोलने से क्या कुछ बदल जाएगा? पर फिर विचार आता है कि हम औरों के लिए थोड़े ही बोलते हैं। हम तो अपने लिए बोलते है – अपनी खोज को जारी रखने के लिए! अपनी सोच को समग्र करने के लिए! अपने को जिन्दा रखने के लिए!
…और बोला मुँह से भी जाता है और कर्म से भी! कुछ लोग कविता, गीत, कहानियों के माध्यम से बोलते हैं तो कुछ कूची या छेनी के जरिए बोलने में माहिर होते हैं। कुछ गा कर बोलते हैं तो कुछ नाच कर। जितने तरह के लोग, उतने बोलने के तरीके!
कुछ कहने सुनने की इस डगर में अगर कभी कोई साथ ना हो तो थोड़ा अजीब जरूर लगता है पर उस एकाकीपन का गिला नहीं होता क्योंकि मन को मन से बातें करने का मौका मिल जाता है, जिसका अपना एक अलग आनंद है! पर अगर इस डगर में बोलने सुनने वाले हमराही मिल जाएँ तो सफर आनंदमयी हो जाता है।
इसलिए… सोचते रहें! बोलते रहें!
बोलने पर ही दुनिया कायम है!