सत्येन्द्र – वृतान्त 1

फिल्मों में दिखने वाले कोर्ट रूम से कोसों दूर था जिला न्यायालय का यह कमरा। अंधकारमय और अव्यवस्थित। अगर कुछ न्यायालय सा था तो वो थी जज की मेज और कुर्सी, कुर्सी के पीछे दीवार पर टंगे गाँधीजी और बाबा साहब के चित्र, इंसानी संपर्क से बुरी तरह घिस चुका लकड़ी का पुराना बैरीकेड जो जज साहब की मेज के आगे था, और बैरीकेड के दोनों छोरों पर दो जर्जर कटघरे।

कमरा खचाखच भरा था। स्टूल, लकड़ी और प्लास्टिक की कुर्सियों और बेंचों पर हर तरह के लोग बैठे थे। कई लोग दीवारों से सट कर खड़े थे तो कई खिड़कियों से झाँक रहे थे। जरूरत से ज्यादा भर गए इस कमरे में परिंदे तो क्या, हवा के आवागमन पर भी बंदिश सी लगी थी।

कटघरे में लगी प्लास्टिक की कुर्सी पर एक पढ़ा लिखा सा दिखने वाला व्यक्ति निढाल पड़ा था। हल्की उगी हुई दाढ़ी, तीखे नैन नक्श, नीले रंग का छोटा कुर्ता, और जींस पहना यह व्यक्ति छत पर टंगे पुराने पंखे तो एकटक ताक रहा था।

जज साहब के कुर्सी पर विराजमान होते ही उनके अर्दली ने उन्हें एक फाइल परोसी जिस पर उन्होंने बिना पढ़े हस्ताक्षर कर दिए। उनका पैन उठते साथ ही अर्दली ने फाइल उठाई और तुरंत दूसरी फाइल परोस दी। जज साहब के कुछ पन्ने पलटे और फिर हल्के से खाँसने के बाद, मानो वो कोई इशारा हो, अपना फैसला पढ़ने लगे। बचाव पक्ष की वकील प्रीति के पीछे बैठी स्नेहलता जज साहब को एकटक देख रही थी। उसकी आँखें नम थी। प्रीति पीछे मुड़ी और स्नेहलता के हाथ के ऊपर अपना हाथ रखते हुए बोली, “चिन्ता मत कर, आज सत्येन्द्र रिहा हो जाएगा।”

जज साहब अपना फैसला एक स्वर में पढ़े जा रहे थे। फैसले में कही जा रही बातें स्नेहलता कई बार सुन चुकी थी। उसे तो बस इस कानूनी बहस के अन्त में दिए जाने वाले निर्णय का इन्तज़ार था। वह सत्येन्द्र को रिहा करा कर घर जाना चाहती थी। वह एक रात में महीनों की नींद सोना चाहती थी। वह थक चुकी थी पर टूटी नहीं थी इसलिए चाहती थी की फैसला वैसा ही हो जैसा उसे चाहिए। जज साहब फैसले के आखिरी हिस्से में पहुँच चुके थे, “सारे गवाहों और सबूतों के मद्देनज़र यह न्यायालय अभियुक्त सत्येन्द्र को बलात्कार का दोषी पाती है और धारा 373 से तहत सात साल के कठोर कारावास की सजा सुनाती है।”

स्नेहलता फफक कर रो पड़ी। सत्येन्द्र अभी भी एकटक पंखे को ताक रहा था। प्रीति हड़बड़ाती हुई उठी और स्नेहलता के पास पहुँची और उसे आलिंगन में लेते हुए बोली, “स्नेहा, चिंता मत करो, हम हाई कोर्ट जाएँगे! पर अगर तुम बिखरने लगोगी तो फिर सत्येन्द्र का क्या होगा? देखो उसे! तुम्हें हौसला रखना पड़ेगा स्नेहा! अपने लिए भी और सत्येन्द्र के लिए भी।”

प्रीति के हाथों के बीच से स्नेहा ने सत्येन्द्र की ओर देखा। पुलिस वाले उसे बाहर ले जा रहे थे पर उसने एक बार भी स्नेहलता की ओर मुड़ कर नहीं देखा। वह अपनी अलसाई चाल में कोर्ट से बाहर चला गया। स्नेहलता के आँसू थम ही नहीं रहे थे। अधिकाँश लोग कोर्ट रूम से बाहर जा चुके और कुछ लोग स्नेहा को घेरे खड़े थे जिसमें कुछ अपने थे और कुछ तमाशबीन। प्रीति ने सहारा देते हुए स्नेहलता को कुर्सी से उठाया और उसे कोर्ट से बाहर ले जाने लगी।

बाहर प्रेस के लोग खड़े थे। सवाल कर रहे थे। पर स्नेहलता अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी, मानो वह वहाँ थी ही नहीं। प्रीति जैसे तैसे उसे अपनी कार तक ले गई और उसे पिछली सीट पर बैठा दिया। प्रेस के लोग उसकी तस्वीर ले रहे थे पर शक्तिविहीन स्नेहलता शून्य में ताक रही थी जहाँ उसे सत्येन्द्र का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा, “तुम भी ना स्नेहा, छोटी छोटी बातों पर कितनी भावुक हो जाती हो। कभी कोई असल मुसीबत आ पड़ी तो तुम्हारा क्या होगा?”

“मेरा जो भी होगा देखा जाएगा पर तुम्हारा क्या होगा सत्येन्द्र बाबू? कितनी भावनायें अटा लोगे अपने नन्हे से दिल में? किसी दिन यह सब बम बन कर ना फूट जाए!”, यह कहते हुए स्नेहलता हँसने लगी।

“फूटेगा तो नहीं! बहुत गहरा खोद रखा है मैंने अपने दिल का कुआँ। तुम नहीं जानती की क्या कुछ नहीं समा सकता है इसमें। मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ की भिन्डी में कीड़ा दिखा तो उसमें भी भावुक हो लिए।”

“तुम और तुम्हारी डींगें? देखेंगे! जरूर देखेंगे! जब खिलेगा तो हम भी देखेंगे! और फिर नापेंगे भी, तुम्हारे कुँए की गहराई! अभी तो बहरहाल नीचे दूकान से पीने का पानी ले आओ। नल में चाय आ रही है। ज्यादा बक बक करोगे तो उसे ही गरम करके पिला दूँगी।”

बहुत प्रेम था सत्येन्द्र और स्नेहलता में। सत्येन्द्र, यानि डॉ. सत्येन्द्र पन्त, उत्तराखंड में अल्मोड़ा शहर के पास एक गाँव में पला बढ़ा था। पिता अल्मोड़ा के राजकीय विद्यालय में शिक्षक थे। गाँव में प्राईमरी करने के बाद सत्येन्द्र अपने पिता के स्कूल में दाखिल हो गया। पिताजी यूँ तो विज्ञान के शिक्षक थे पर उनकी रूचि कला में ज्यादा थी। संगीत, नाटक, इतिहास, कहानियाँ, कविता… सभी से अत्यंत लगाव था उन्हें इसलिए उनसे लिपटने का कोई अवसर गँवाते नहीं थे। क्योंकि सत्येन्द्र उनके साथ ही स्कूल आता जाता था इसलिए उसे भी इन बैठकों, संगतों, गोष्ठियों और वार्ताओं का हिस्सा बनना पड़ा। शुरू में तो सत्येन्द्र को यह दुनिया समझ नहीं आई पर जब वह समझने लगा तो उसे इस दुनिया से इश्क हो गया। वह पिता के साथ स्कूल की जगह इन महफिलों में जाने के लिए आतुर रहने लगा। धीरे धीरे उसकी हिस्सेदारी श्रोता के रूप में ही नहीं बल्कि कलाकार के रूप में भी होने लगी। वह नाचने और गाने भी लगा, अभिनय करने लगा… और देखते ही देखते अल्मोड़ा के तत्कालीन साँस्कृतिक रंग ढंग में ढल गया। पिताजी को यह सब देख कर अच्छा लगता था। सत्येन्द्र पढ़ने लिखने में तेज था, अच्छे नंबर ले आता था इसलिए उन्हें कोई शिकायत भी नहीं थी।

पर पिता पुत्र का कोई द्वंद्व ना हो ऐसा कैसे सम्भव है। दसवीं के बाद जब सत्येन्द्र ने विज्ञान की जगह इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो मास्साब को यह बात बिल्कुल नहीं जँची। उनका मानना था की कला से लगाव अच्छी बात है पर पेशा तो वही होना चाहिए जिसमें इज्ज़त और धन दोनों की कमी ना हो। वे चाहते थे की सत्येन्द्र किसी अच्छे कॉलेज से इंजिनियरिंग करे, विदेश जाए, नाम और पैसा कमाए… गाना बजाना, नाटक, सामाजिक मुद्दों पर वाद विवाद, यह तो चलते रहे हैं और चलते रहेंगे। मुद्दा इतना गरमा गया की चाचा, ताऊ, बुआ, पड़ोसी, पिताजी के मित्र, माताजी के मित्र, बड़े भाई के मित्र, भाभी के पापा… सभी पन्त परिवार की इस उलझन में उलझ गए। पर सत्येन्द्र था की टस से मस न हुआ।

आखिरकार, जब उसे लगा की पिताजी आसानी से रणक्षेत्र छोड़ने वालों में से नहीं है तो उसने पूरी भावुकता के साथ एकतरफा ऐलान कर डाला, “देखो बाबू, बहुत सोच समझ कर मैंने अपना निर्णय लिया है। विज्ञान तो मैं पढ़ने से रहा पर अगर आप जोर जबरदस्ती करोगे तो मैं भर्ती तो ले लूँगा पर जान बूझ कर फेल हो जाऊँगा। फिर सँजोते रहना आप अपने ख्वाब!”

सत्येन्द्र की धमकी ने माताजी को रुला दिया। किले का द्वार गिर चुका था अतः अब सिंहासन का डोलना भी लगभग तय सा था। आखिरकार पन्तजी ने भी बेटे की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए। नीरस और निराश भाव से ही सही, उनका अंतरमन बेटे के अक्स को देख कर बोला – जा, जी ले अपनी जिंदगी! उनके मुँह से यह शब्द निकल तो ना पाए पर उनकी हरकतों ने हामी भर दी थी। समझदार माँ बेटे से जा कर लिपट गई।

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