लोग-तंत्र

लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का फर्क दिखने में तो बहुत महीन सा लगता है पर होता बहुत विशाल है। इस फर्क को महसूस करने के लिए नजर नहीं नज़रिए की जरूरत पड़ती है। लगभग यही फर्क हक और ताकत के बीच भी है। कई बार हक ताकत का सा वर्ताव करने लगती है तो कई बार ताकत अपने को हक समझती है। किसी भी सरकार को गुंडा बनने में और लोकतंत्र को लोगतंत्र बनने में ज्यादा मेहनत नहीं लगती। और इस बदलाव को देखने के लिए भी नजर नहीं नज़रिए की जरूरत पड़ती है।

लोग-तंत्र


मेरी जमीं मेरा हक है, तेरी जमीं मेरा हक है,
मेरी कमी मेरा हक है, तेरी कमी मेरा हक है।

मेरा जंगल मेरा हक है, तेरा जंगल मेरा हक है,
मेरा मंगल मेरा हक है, तेरा मंगल मेरा हक है।

मेरा पानी मेरा हक है, तेरा पानी मेरा हक है,
मेरी वाणी मेरा हक है, तेरी वाणी मेरा हक है।

मेरा धर्म मेरा हक है, तेरा धर्म मेरा हक है,
मेरा कर्म मेरा हक है, तेरा कर्म मेरा हक है।

मेरा वेश मेरा हक है, तेरा वेश मेरा हक है,
मेरा देश मेरा हक है, तेरा देश मेरा हक है।

मेरा आज मेरा हक है, मेरा कल मेरा हक है,
मेरा बल मेरा हक है, हर निर्बल मेरा हक है।

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