कोई शख्स यूँ ही हर रोज मर रहा है!
हम मानना चाहते हैं कि हमारी हर सोच, हर बात, और हर कृत्य के जरिए हम अपना और अपनों का कल बदल रहे हैं। जो आज से क्रोधित हैं उनसे हम क्रोधित हो जातें क्योंकि उनके सामयिक सवाल हमें अच्छे नहीं लगते।
इस क्षेणी में छोटी बड़ी कविताएँ, गीत, क्षणिकाएँ… सभी हैं। अधिकांश कविताएँ स्वरचित है – जीवन के अलग अलग दौर में। पर कुछ कविताएँ/गीत अनुवादित हैं और कुछ पैरोडी। ऐसी गीत/कविताओं में मूल कविता/गीत का जिक्र या लिंक दिया गया है।
हम मानना चाहते हैं कि हमारी हर सोच, हर बात, और हर कृत्य के जरिए हम अपना और अपनों का कल बदल रहे हैं। जो आज से क्रोधित हैं उनसे हम क्रोधित हो जातें क्योंकि उनके सामयिक सवाल हमें अच्छे नहीं लगते।
नाम बदलने से शहर नहीं बदलते। शहर बदलने से लोग नहीं बदलते। लौट कर जाओ तो बस बढ़ी हुई चकाचौंध दिखती है। मूल नहीं बदलता क्योंकि बदलाव समय से नहीं, करने से आता है। और करने के लिए चाहत जरूरी है।
सोशल मीडिया पर एक मज़ेदार उद्धरण पढ़ा – अगर दुनिया में 300 धर्म हैं तो आस्तिक उनमें से 299 को नहीं मानता और नास्तिक 300 को। बस इतना ही सा फर्क है दोनों के बीच। पर कई लोग 299 और 300 के बीच झूलते रहते हैं।
काफी समय पहले की बात है। हम लिखने वाले अक्सर मिल बैठते थे – थोड़ा सुनने और थोड़ा सुनाने। कुछ लोग केवल सुनने भर के लिए भी आ जाते थे। ऐसी ही एक जमघट में किसी सुननेवाले ने मुझे टोका, “कभी कुछ अच्छा भी लिखते हो?”
हम केवल हम नहीं होते। कई और हम भी होते हैं हमारे हम में। और हम भी हिस्सा होते हैं कई हमों के। इतिहास और भविष्य किसी एक का नहीं होता। वह कुछ एकों का भी नहीं होता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि वह सब का होता है।
जब सपने मरते हैं तो वे विलुप्त नहीं होते। वे तो पड़े रहते हैं सपनों के शवग्रह में – किसी चमत्कार के इंतज़ार में। और हम हैं कि अतीत के भूत प्रेतों के डर से सपनों के शवग्रहों में जाने से घबराते हैं। अब जाएंगे ही नहीं तो चमत्कार कैसे होगा?
लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का फर्क दिखने में तो बहुत महीन सा लगता है पर होता बहुत विशाल है। इस फर्क को महसूस करने के लिए नजर नहीं नज़रिये की जरूरत पड़ती है। लगभग यही फर्क हक और ताकत के बीच भी है।
पहाड़ों में सफर करते हुए कई बार ऐसे गाँव दिखाई पड़ जाते हैं जो होते भी हैं और नहीं भी। क्षतिग्रस्त मकानों और बंजर खेतों वाले इन पगडंडी विहीन गाँवों को देख कर लगता है मानो उनका समय अतीत में कहीं थम सा गया है।
भीड़ में इन्सान को पहचाना कठिन होता है। इंसानों को उनके कर्मों से पहचाने के लिए काफी वक्त चाहिए जो अमूमन लोगों के पास नहीं होता। इसलिए जमाना तमगों का है। हम क्या हैं वह ‘हम’ नहीं बल्कि हमारे ठप्पे तय करते हैं।
पहाड़ भी महज एक कोना ही तो है इस संसार का। उसे भी दुनिया वैसी ही दिखाई देती है जैसी बाकि सब को। इसीलिए पहाड़ भी वक्त जाया करता है इस संवाद में कि यह जमीन किसकी है, यह संस्कृति किसकी है…