दारू करन, चरस अर्जुन

करन अर्जुन केवल फिल्मों में नहीं होते। दोगाँव की कल्याणी भी, फिल्म वाली दुर्गा की तरह, इंतज़ार कर रही है अपने अर्जुन का। रील की दुनिया से फर्क बस इतना है की वह जब करन अर्जुन को लेकर बागेश्वर मेले गई तो वहाँ केवल अर्जुन खोया, करन नहीं। गाँव की गप्प है कि अर्जुन खोया नहीं बल्कि खो दिया गया क्योंकि कल्याणी के गरीब चूल्हे की दो बच्चे पालने लायक हैसियत नहीं थी। पर अर्जुन ही क्यों? लोग मानते हैं कि कौन खो दिया जाएगा इसका निर्णय वर्ण के आधार पर लिया गया।

अब कल्याणी का करन बीस साल का बाँका जवान हो गया है। एक आदर्श शराबी की तरह वह हर रोज शराब पी कर किसी छोटी बात पर बिदक जाता है और भरपूर हंगामा करता है। उसके व्यसन के कारण उसका परिवार शर्मसार ही नहीं, आर्थिक बर्बादी के कगार पर भी है।

एक दिन तड़के उसे उलटी करते देख कल्याणी अपने को जोर जोर से कोसने लगी कि क्यों उसने वर्ण को चुना। वह ऐसा न करती तो उसके साथ गोरा करन नहीं बल्कि साँवला अर्जुन होता। सालों की गप्प के सच में बदलते ही सबको यह भी पता चल गया कि अर्जुन कौन और कहाँ है। पता लगा की उसे करन की तरह दारू से नहीं बल्कि चरस से प्रेम है।

बात खुल ही गई तो कल्याणी ने अर्जुन को जवाब भिजवाया की वह अपनी अभागी असली माँ के पास वापस आ जाए। अब हर बार जब करन दारू पी पर हंगामा करता तो वह जोर जोर से चिल्लाती, “मेरा अर्जुन वापस आएगा! मेरा अर्जुन जरूर वापस आएगा!”

एक नशेड़ी की जगह दूसरे नशेड़ी की चाह अटपटी सी थी इसलिए ग्रामसभा की एक बैठक में ग्राम अधिकारी का इंतज़ार करते हुए मैंने कल्याणीदी से यूँ ही पूछ लिया, “कल्याणीदी, शराबी की तरह चरसी भी तो उत्पात ही मचाएगा। एक मुसीबत कम है जो दूसरे को न्योता दे रही हो?”

“अरे भुला, तुम पढ़े लिखे लोगों का क्या है। कोई न कोई तुम्हारे मरते मुँह में अनाज डाल ही देगा। पर हम गरीबों की बात अलग हुई। हमारे लिए तो हर चलने वाले हाथ की कीमत होने वाली हुई!”

“सुना अर्जुन परम चरसी है। आप करन से इतने परेशान हो तो अर्जुन के आने से क्या बदल जाएगा?”

“यही तो तुम नहीं समझते। बदलेगी मेरी जिंदगी। ये जो शराब है ना, वो शराबी के अंदर के जानवर को बाहर निकालती है। कलेजा, घर बार और समाज सभी खराब होने वाला हुआ। पर चरसी शांत होता है। गाली दो तो भी पलट के गाली नहीं देता। बीवी बच्चों को नहीं कूटता। चरसी तो नशे में भी काम करने वाले हुए। भुला, बोतल के नशे से नशेड़ी का राक्षस बाहर निकलता है पर पत्ते के नशे से नशेड़ी के अंदर का सभ्य आदमी बाहर आता है।” फिर थोड़ी सी चुप्पी के बाद बोली, “ऊपर से पत्ता मुफ़त में मिल जाता है। अपनी जरूरत भर का माल तो सभी बना लेते हैं।”

मैं एकटक कल्याणीदी को देखता रह गया। मेरी बैचेनी भाँपते हुए पास में बैठे ग्राम प्रधान बोले, “भैजी, कल्याणी बात तो ठीक कह रही है। चरस तो सदियों से दवा का काम कर रही है। स्थानीय भी है और जैविक भी। इसके पत्ते, बीज, रेशे.. सभी काम आते हैं इसलिए आजीविका का माध्यम भी बन जाते हैं। ऊपर से यह सिंचाई भी नहीं माँगती। अब देखिए ना, शराब बेचने से हुई आय तो बाहर के व्यवसायियों के पास जाती है पर चरस का पैसा तो गाँव में ही रहता है। स्थानीय अर्थव्यवस्था! आगे तो आप समझदार हैं।”

निःशब्द, मैं कल्याणीदी से बस इतना ही कह पाया, “आपका अर्जुन जरूर आएगा!”

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