चल हट
कबीर इस पुराने गाँव का पुराना निवासी है। इस गाँव में उसके पुरखे तब से रह हैं जब दुनिया के अधिकाँश धर्म ईजाद नहीं हुए थे और कई संस्कृतियों और भाषाओं का जन्म नहीं हुआ था।
कबीर के पूर्वज सदियों से पूरब में बहने वाली नदी में नहा कर गाँव के दक्षिणी छोर पर स्थित पहाड़ी की चोटी पर स्थापित देवी से बातें करते आए हैं। यह बातें, जिसे अब लोग पूजा कहने लगे हैं, किसी कर्मकांड की तरह हर रोज नहीं होती बल्कि लोग जरूरत अनुसार अपनी देवी से बातें करने चले जाते हैं। आधुनिक धर्म व्यवस्था के आगमन के बाद भी उनके मानस में इस देवी की मान्यता सबसे अधिक है। और क्यों ना हो? उनकी देवी हमेशा से उनके सुख दुःख की साथी जो रही है।
अब सुना उस पहाड़ के नीचे ताम्बे का भंडार मिला है जिसे निकालना देश के विकास के लिए जरूरी है। वैसे यह विकास कबीर ने कभी नहीं माँगा। माँग कर करता भी क्या? विकास इतना गतिवान होता ही नहीं की दूर दराज़ के इलाकों तक पहुँच सके। वैसे तो कबीर ने आज़ादी भी नहीं माँगी थी क्योंकि वह तो सदा से ही आज़ाद था। पर अपने तक देश के पहुँचने का उसने कभी विरोध भी नहीं किया। करता भी क्यों? उसे सब अपने से लगे। इन्सान होते हुए अन्य इंसानों पर भरोसा ना करने का उसके पास कोई कारण नहीं था। पर अब उसे कभी कभी यह जरूर लगता है कि आज़ादी ने उसे गुलाम सा बना दिया है।
इस साल कबीर 75 वर्ष का हो गया। एक खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर वह चैन से मृत्यु की राह देख रहा है। वह धरती के इसी कोने पर प्राण त्यागना चाहता है जहाँ से उसके पुरखे स्वर्ग सिधारे ताकि वह आसानी से उन्हें मिल सके। पर विकास उसे विस्थापित करना चाहता है। ना कोई निवेदन, ना कोई परामर्श, ना कोई विकल्प – बस निर्णय। विकास कबीर को कुछ दे तो नहीं पाया पर पूरी ताकत से उसका सब कुछ ले लेना चाहता है। विकास चाहता है की एक देशवासी होने के नाते कबीर बलिदान दे। मना करने पर देश विरोधी करार दिए जाने की धमकी भी मिल रही है।
सारे सरकारी दाँव पेंच आजमाने के बाद भी जब विकास को कोई रास्ता नहीं मिला तो विकास के दादाजी ने खुद आकर कबीर को जोर जबरदस्ती देशभक्ति का पाठ पढ़ाना चाहा। कबीर ने उन्हें बहुत गौर से सुना। सुनना उसका संस्कार है। पर कुछ बात है उसमें जो उसे लाचार नहीं होने देती इसलिए सब कुछ सुन लेने के बाद उसने विकास के दादाजी की आँखों में देखा और महज दो शब्दों में अपना निर्णय सुना दिया – चल हट!