सत्येन्द्र – वृतान्त 7
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जो हम चाहते हैं उसकी आस लगाते है। उसके लिए कोशिश करते हैं। सपने बुनते हैं। पर कुछ चीजें ऐसी भी होती हैं जिनके मिलने के बारे में हम सोचते ही नहीं, या फिर सोचना बंद कर देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता की हमने उसे चाहना बंद कर दिया है। हम बस मन को मना लेते हैं की सोचना मना है। यदि ऐसी कोई चीज अचानक मिल जाए तो किसके जीवन को पंख नहीं लगेंगे। अपने जीवन में अचानक आए बदलाव ने मेनका को सातवें आसमान पर बिठा दिया था। उसकी हर बात, हर अदा बता रही थी की वह बहुत खुश है।
उसके निजी वर्ताव ही नहीं बल्कि कार्यकलापों में भी यह बदलाव साफ झलक रहा था। वह रिहर्सल में जोर शोर से भाग लेने लगी। पहले से कहीं ज्यादा ताकत झोंक दी उसने। पर साथ ही साथ वह सत्येन्द्र से दूरी भी बनाने लगी। सत्येन्द्र ने जब इस बात को महसूस किया तो मौका देख कर पूछा पर मेनका बात को टाल गई। उसके बाद भी सत्येन्द्र ने कई बार कोशिश की पर मेनका हर बार बात को किसी ना किसी बहाने टाल गई।
उस दिन स्नेहलता के कॉलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था। अलंकार ने भी फोन कर बता दिया था कि उसके ऑफिस में बहुत काम है इसलिए वह रिहर्सल में नहीं आ पाएगा। तीन अन्य साथी भी बिना बताए गायब थे। घर पर केवल सौरभ, सत्येन्द्र और मेनका थे। रिहर्सल कर जब वे थक गए तो अपने को पुनः जोश से भरने के लिए जाम बना लिए। एक दो पेग के बाद सत्येन्द्र बोला, “यार खाली पेट तो शराब चढ़ जाएगी। सौरभ, तुम जा कर कुछ टिक्के शिक्के क्यों नहीं ले आते?”
“अभी ले आता हूँ गुरुजी”, कहते हुए सौरभ ने अपना पेग गटका और बाहर निकल गया। उसके जाते ही सत्येन्द्र मेनका के पास आया और उसके बालों को चूमने लगा। मेनका ने झट से अपने को उससे दूर किया और बोली, “कुछ मत कीजिए प्लीज़!”
“अरे, क्या हुआ?”, कहता हुआ सत्येन्द्र उसकी ओर बढ़ा और उसे जबरन पकड़ने लगा। मेनका ने उसे धक्का सा दिया और फिर बोली, “प्लीज़ कह रही हूँ। कुछ मत कीजिए। सौरभ आता ही होगा।”
पर सत्येन्द्र रुकने को तैयार नहीं था, “अरे उसे वक्त लगेगा। तुम कहो तो उसे और दूर भेज दूँ?”
सत्येन्द्र को आगे बढ़ता देख कर मेनका जोर से, लगभग चिल्लाते हुए बोली, “सत्येन्द्र, प्लीज़!”
पर सत्येन्द्र नहीं रुका। उसने जबरन मेनका को पकड़ कर कालीन पर लिटा दिया। फिर अपनी शर्ट उतार कर मेनका को चूमने लगा। मेनका उसे रोकती रही पर उसे मेनका के इनकार में आनन्द आ रहा था। मेनका अपने को अलग करने के लिए जितना ताकत लगाती वह उसकी दूगनी ताकत झोंक देता इस खेल में। अपनी पूरी ताकत लगा कर उसने जब मेनका को अपने काबू में कर लिया तो मेनका रो पड़ी। उसकी आँखों में आँसू देख कर भी सत्येन्द्र नहीं रुका। मेनका अब भी अपने को अलग करने के लिए पूरा जोर लगा रही थी पर सत्येन्द्र की शारीरिक क्षमता के आगे वह कमज़ोर पड़ने लगी। वह जितनी ताकत लगाती सत्येन्द्र उतना ही उग्र हो जाता। वह थक कर चूर हो गई फिर भी अपने को छुड़ाने के लिए छटपटाती रही। उसमें जीतने की ताकत नहीं बची थी पर वह हारने के लिए तैयार नहीं थी। उसके चेहरे पर उसका गुस्सा साफ झलक रहा था। और उसकी बेबसी भी। उसने अपनी जिंदगी में स्वयं को कभी इतना दुर्बल महसूस नहीं किया था। सब कुछ समझ सकने वाले सत्येन्द्र ने भी मेनका को समझने की कोशिश नहीं की। वह तो उसके असहाय हो जाने में अपने पुरुष होने का जश्न मना रहा था।
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आखिरकार अपने पौरुष को प्रमाणित कर जब सत्येन्द्र ने अपनी पकड़ ठीली की तो मेनका ने अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और पूरी ताकत से सत्येन्द्र के एक तमाचा जड़ दिया। सत्येन्द्र थोड़ा सकपकाया पर गुस्साया नहीं। शायद उसे पता था कि उसके इस खेल का अन्त ऐसा ही होगा इसलिए एक लापरवाह अंदाज में वह स्वयं को समेटने लगा। उसे धक्का देते हुए मेनका उठी और चिल्लाते हुए बोली, “मना किया था ना! इतनी सी बात समझ नहीं आती?” सत्येन्द्र उसे चुपचाप यूँ देखता रहा मानो कुछ हुआ ही न हो।
मेनका रोती हुई बाथरूम में चली गई और तब तक बाहर नहीं निकली जब तक सौरभ वापस नहीं आ गया। उसके आ जाने का संकेत मिलते ही मेनका ने थोड़ा सा दरवाजा खोल कर बाहर झाँका और जब पक्का हो गया कि सौरभ वापस आ गया है तो वह तेजी से निकली, अपना पर्स उठाया और होले से उसे अलविदा कह कर जाने लगी। मेनका का हाव भाव सामान्य नहीं था इसलिए सौरभ चौंक सा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मसला क्या है। उसने आश्चर्य भरी नज़रों से सत्येन्द्र की ओर देखा तो वातावरण को सामान्य करने के इरादे से सत्येन्द्र जोर से बोला, “अरे मेनका, टिक्के तो खाती जाओ।” बिना कोई उत्तर दिए मेनका घर से बाहर चली गई।
हड़बड़ी में सीढ़ियों से उतर कर जब वह सड़क पर पहुँची तो उसने राहत की साँस ली। वह थोड़ा ठिठकी और फिर खुद को समेट कर पैदल चलने लगी। चलते चलते वह रोने लगी। कुछ ऑटो वालों ने उसके पास आ कर पूछना चाहा कि उसे जाना कहाँ है पर वह कुछ नहीं बोली। उसका रोना बदस्तूर जारी रहा। घबराए हुए ऑटोवाले तेजी से आगे निकल गए। राह चलते लोग उसे मुड़ मुड़ कर देख रहे थे पर उसने किसी को पलट कर नहीं देखा। वह इस भीड़ में निपट अकेली थी। दो तीन बार अलंकार का फोन भी आया पर उसने फोन की घंटी अनसुनी कर दी।
लगभग चालीस मिनट तक पैदल चलते रहने के बाद जब उसके पैर थक गए और आँसू सूख गए तो उसने एक ऑटो को रोका और अपने कमरे में जाने की जगह अपनी बुआ के घर द्वारका चली गई। मुखौटा लगा कर उसने बुआ से कुछ बातें की, फिर बहुत थके होने की दुहाई दी और सोने चली गई, हालांकि नींद आना मुश्किल था। कमरे में आते ही उसने फोन पर अगली सुबह का हवाई टिकट बुक किया और सोने की कोशिश करने लगी। इस बीच अलंकार ने हजारों कॉल कर डाले पर उसने जवाब नहीं दिया। यूँ ही अलटते पलटते रात बीत गई और सुबह तड़के ही वह एयरपोर्ट चली गई, बंगलौर की फ्लाइट पकड़ने।
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