शुन्य की आबादी वाले गाँव की अकेली नदी

पहाड़ों में सफर करते हुए कई बार ऐसे गाँव दिखाई पड़ जाते हैं जो होते भी हैं और नहीं भी। क्षतिग्रस्त मकानों और बंजर खेतों वाले इन पगडंडी विहीन गाँवों को देख कर लगता है मानो उनका समय अतीत में कहीं थम सा गया है। उसके सूखे, टूटे गुलों ने एक पीढ़ी से कोई खेत नहीं सींचे। इन गावों का सौन्दर्य मन को मोहता भी है और विचलित भी कर देता है। जब भी ऐसे गाँवों को देखता हूँ तो लगता है कि वे भी हमें देखते हैं – आशा और निराशा से!

शुन्य की आबादी वाले गाँव की अकेली नदी

उजाड़ खेतों वाली वीरान घाटी में
अकेली बहती वह चंचल नदी,
याद करती होगी क्या बच्चों को,
प्रवाह में उसके जो खेलते थे कभी?

या उनको जिन्होंने उसे होले से बाँधा
और लटें खींच ली अपने खेतों कि ओर,
या पानी की कल-कल में जोड़ा जिन्होंने
पत्थर के पाटों से पनघट का शोर?

शुन्य की आबादी वाले इस गाँव में
अब भी बहती वह चंचल नदी,
अकेली… क्या सोचती होगी?
कि क्या हुआ?

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