सत्येन्द्र – वृतान्त 6
< वृतान्त 1 | वृतान्त 2 | वृतान्त 3 | वृतान्त 4 | वृतान्त 5
***
टेगौर की कहानियों के मंचन की तैयारी पूरे जोर शोर से शुरू हो गई। सभी लोग शाम को सत्येन्द्र के घर मिलते और प्रोडक्शन के बारे में चर्चा करते। देर रात तक वाद विवाद चलता। सत्येन्द्र और स्नेहलता के साथियों में प्रमुख था उनका मित्र अलंकार। पेशे से वकील, अलंकार बहुत ही दिलखुश और मजेदार व्यक्ति था। वो जहाँ जाता उस जगह को जगमगा देता।
अलंकार भी मूलतः उत्तराखंड का ही था पर वहाँ कभी रहा नहीं था। पिताजी केन्द्रीय सरकार में अफसर थे जिनका भारत के अलग अलग कोनों में स्थानांतरण होता रहता था। सत्येन्द्र से मिलने से पहले अलंकार के लिए संस्कृति का अर्थ था स्कूली कार्यक्रमों व दूरदर्शन में प्रस्तुत किए जाने वाले लोक व शास्त्रीय नृत्य। एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में पलने वाले बच्चों की तरह वह केवल इंडिया को जानता था, भारत को नहीं। उसका भारत एक था जहाँ सब जन बराबर थे, जहाँ न्याय की सत्ता थी, जहाँ सभी के पास काम व सम्मान था और जहाँ सभी लोग एक ही से सपने देखते थे। अलंकार के लिए सपने का अर्थ था अच्छे कॉलेज में शिक्षा और बढ़िया सी नौकरी। पर जब अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी दोनों मिल गए तब उसे अहसास हुआ की पाने के लिए अभी बहुत कुछ और बचा है। दोस्ती उसे सत्येन्द्र के पास लाई और उसके बौद्धिक अकेलेपन को रंगमंच ने भर दिया। फिर क्या था… राह मिल जाए तो उस पर सरपट भागने की कला तो उसे हमेशा से आती ही थी।
मेनका का कमरा अलंकार के घर के पास ही था इसलिए शाम या रात को वे अक्सर साथ ही घर जाते थे। गप्पबाजी में दोनों टक्कर के थे। दिल खोल कर हंसी ठिठोली करने वाले कुछ ही रह गए हैं इस दुनिया में और वे दोनों उसी गुम होती नस्ल के नमूने थे। घर जाते हुए ठेले की कुल्फी खाना रोज की आदत से हो गई थी। समय मिलने पर वे कई बार किसी नई फ़िल्म का आखिरी शो देखने भी चले जाते।
साथ चलते चलते वे अच्छे दोस्त बनने लगे। एक दूसरे के दुःख दर्द बाँटने लगे। अलंकार वकील जरूर था पर बात बनाने में अभी माहिर नहीं हुआ था। वह कुछ कहना चाहता था पर समझ नहीं पा रहा था की कैसे कहे। इसलिए एक दिन बिन मौके ‘आई लव यू’ कह बैठा। बस यूँ ही। वो भी तब जब मेनका कार से उतर ही थी। इन शब्दों को सुनते ही मेनका ने अन्दर झाँक कर अलंकार को अचरज भरी नज़रों से देखा पर कुछ बोली नहीं। अलंकार सकपकाया पर हिम्मत जुटा कर फिर बोल बैठा, “सीरियसली, आई लव यू!”
मेनका फिर भी कुछ नहीं बोली तो वह बोलता चला गया, “तुम जैसे जीवनसाथी का मुझे इन्तज़ार था। कोई डेट-शेट अफैयर-शफैयर नहीं, सीधे शादी। फिर जीवन भर का साथ। नों इफ़स् एण्ड बटस्! नो क्वेशचन ऑफ एवर टर्निंग बैक। क्या कहती हो?”
मेनका ने कोई जवाब नहीं दिया। बस गुड नाईट कह कर चली गई। ठगा सा अलंकार उसे जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक वह सीढ़ियों में गुम नहीं हो गई। कमरे में पहुँच कर मेनका ने अपना बैग टेबल पर फैंका और बिस्तर पर गिर पड़ी। और फिर अचानक जोर जोर से रोने लगी और रोते रोते सो गई।
सुबह जब उठी तो उसकी आँखें सूजी हुई थी। उसने रात को कपड़े तक नहीं बदले थे। कपड़े बदल, उसने अपने लिए चाय बनाई और खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई। उसने पहली चुस्की ली ही थी की उसका फोन बज उठा। अलंकार का फोन था। उसने फोन काट दिया। दो मिनट बाद फिर फोन बजा। इस बार उसे उठाना ही पड़ा। उसके हेलो कहते ही अलंकार बोल पड़ा, “कल रात के लिए माफ़ी माँगनी थी। सॉरी यार! तुम्हें परेशान करने का मेरा कोई इरादा नहीं था!”
“इट्स ओके! तुम्हारी कोई गलती नहीं है अलंकार। मामला ही कुछ ऐसा है की क्या कहूँ।”
“क्यों क्या हुआ? मैं कोई मदद कर सकता हूँ?”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।”
“बुरा ना मानो तो क्या मैं पूछ सकता हूँ की क्या बात है?”
“कभी बैठेंगे तो बताऊँगी।”
“आज बैठ सकते हैं?”, अलंकार ने झिझकते हुए पूछा।
“देखते है!”
“दिन में आ जाऊँ?”
“ऐसी भी क्या जल्दी है। ऑफिस नहीं जाना क्या?”
“आज इतवार है मेनका! “
“आज… आज तो…”, मेनका के समझ नहीं आ रहा था की बात को कैसे टाला जाए।
“चाहो तो मैं अभी भी आ सकता हूँ। रास्ते से नाश्ता भी पैक करा लाऊँगा।”
“नहीं… नहीं… वो मुझे…”, मेनका के लिए बहाने बनाना आसान काम नहीं था। अलंकार भी इस बात को अच्छी तरह जानता था इसलिए मेनका की बात काटते हुए बोला, “मैं एक घंटे में आ रहा हूँ”। यह कह कर उसने फोन काट दिया।
सकपकाई हुई मेनका धप्प से पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। उसके चेहरे का रंग उड़ सा गया था। कुछ देर यूँ ही बैठे रहने के बाद वह अचानक उठी और नहा धो कर तैयार होने लगी। ठीक एक घंटे में दरवाजे की घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने, हाथ में नास्ते का पैकेट और चेहरे पर एक चौड़ी मुस्कान लिए अलंकार खड़ा था। मेनका से झिझकते हुए उसे अन्दर आने को कहा और फिर दोनों उसके छोटे से डाइनिंग टेबल के दो छोरों पर बैठ गए। प्लेटें पहले से ही वहाँ पड़ी थी तो अलंकार नाश्ता परोसने लगा।
“चाय अभी बनाऊँ या थोड़ी देर बाद?”, मेनका ने पूछा।
“जो तुम चाहो। वैसे नाश्ते के साथ मिल जाती तो मज़ा आ जाता।”
मेनका चाय चढ़ा ही रही थी की अलंकार खाते खाते बोल पड़ा, “कल के लिए फिर से सॉरी!”
“तुम भी ना! अब बस भी करो। कितनी बार एक ही बात बोलोगे?”
“तब तक, जब तक तुमसे ना या हाँ नहीं सुनता।”
“ना!”
“इस ना में तो ना है ही नहीं मेनका। इस वकील को इतना बेवक़ूफ़ भी मत समझो।”
“तो क्या कहूँ तुमसे?”
“वो ही, जो तुम कहना नहीं चाहती। जिसे कहने से खुद को रोक रही हो शायद। जहाँ तक मुझे पता है तुम सिंगल हो और स्त्रियों में तुम्हारी कोई रुचि नहीं है।”
“बहुत कान्फिडन्स है खुद पर। सच सुन सकोगे?”
“कोई शक?”
“ठीक है। तो लो झेलो। मैं किसी के प्यार में नहीं हूँ पर शारीरिक सम्बन्ध है मेरा।”
“किस से?”, सकपकाते हुए अलंकार ने पूछा।
“तुमसे मतलब? कहा था ना कि सुन नहीं सकोगे!”, टेबल की ओर आती मेनका बोली।
“मतलब की अगर यह सम्बन्ध नहीं होता तो तुम मुझे हाँ कह देती?”
थोड़ी देर के लिए मेनका सोच में पड़ गई। उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या कहा जाए। अलंकार उसे ऐसे कोने में धकेल रहा था जहाँ जाने के लिए वह तैयार नहीं थी। एक दोस्त के रूप में अलंकार उसे प्रिय था। ऊपर से मेनका को अब अपना अकेलापन खलने लगा था। नाश्ते का एक कौर मुँह में डालते हुए वह होले से बोली, “शायद हाँ!”
कोई और होता तो यहाँ अटक जाता पर वकील होने का पूरा फायदा उठाते हुए अलंकार ने तुरंत पलट जवाब दिया, “और अगर मैं कहूँ की मुझे कोई आपत्ति नहीं है तो?”
मेनका एक क्षण के लिए सोच में पड़ गई। फिर बोली, “आज नहीं है तो कल होगी! अगर तुमसे हाँ कहने के बाद भी संबंध बनाए रखा तो?”
“इतना चाहती हो उसे बनाए रखना, तो बनाए रखना! एक शब्द नहीं बोलूँगा।”
“भरोसा कैसे करूँ इस बात पर? वादा करने में तो मर्द उस्ताद होते हैं।”
“भरोसे पर तो दुनिया कायम है मेनका। सवाल मुझसे नहीं बल्कि अपने दिल से पूछो। जवाब मिल जाएगा।”
“तभी तो नाश्ते के लिए हाँ की। पर नाम कभी नहीं बताऊँगी!”
“मत बताना। पर रिश्ता बनाए रखोगी या…”
“लो, हो गए ना शुरू। बैकअप तो रखना पड़ेगा ना… अगर तुम निकम्मे निकले तो?”, कह कर मेनका हँस दी।
“उसकी गुंजाईश नहीं है मेनका। चाहो तो आजमा लो!”
“सात फेरों के बाद!”
“वो भी सही है। तो कब की तारीख लूँ पंडितजी से? या कोर्ट में करोगी? वैसे वहाँ बहुत दिन लग जाते हैं यार। शादी को भी जमीन की रजिस्ट्री जैसा मसला बना रखा है।”
“इतनी भी क्या जल्दी है? माँ बाप को तो राजी कर लो। और हाँ, सब तय होने तक यह बात किसी को बताई ना तो तुम्हारी खैर नहीं।”
“नहीं बताऊँगा यार। और सात फेरों का इन्तज़ार भी करूँगा। पर गले तो मिल सकते हैं ना?”
मेनका कुछ नहीं बोली तो अलंकार उठ कर उसके पास पहुँचा और उसे गले लगा लिया। मेनका उससे चिपट गई और रोने लगी। फिर धीरे से उसके कान में फुसफुसाई, “टूटी हुई हूँ पर फिर भी भरोसा कर रही हूँ तुम पर। बहुत बड़ा भरोसा। अगर तोड़ा ना तो खुद बिखरने से पहले तुम्हें तोड़ दूँगी।”
“तोड़ देना यार। कहो तो मैं खुद ही खुद को तोड़ लूँगा।”, फिर मेनका को अपने से थोड़ा दूर कर उसकी आँखों में देखते हुए बोला, “मैं आज तक अकेला चलता रहा हूँ। सफर में कुछ लोग पसंद आए पर इतने नहीं की कुछ कहने की हिम्मत जुटा सकूँ। शायद अकेले चलना अच्छा लगता है मुझे। पर तुमसे मिल कर पहली बार अकेलेपन का दर्द सा महसूस हुआ।”
यह सुन मेनका जोर से अलंकार से चिपट गई। उसके आँसू फिर बहने लगे। उसके बालों में हाथ फेरते हुए अलंकार होले से बोला, “और कितना भिगाओगी मुझे? आज के लिए यह काफ़ी है। पीवीआर में एक्शन थ्रिलर लगी है। चलोगी?”
“एक्शन थ्रिलर?”
“अब कोई प्यार श्यार की फिल्म देखने जाएँगे तो तुम फिर रोने लगोगी। आज का तुम्हारा कोटा हो गया यार।”
मेनका मुस्कुरा दी और दोनों हाथ में हाथ डाले शहर जीतने निकल पड़े।
2 Responses
[…] वृतान्त 6 > […]
[…] 2 | वृतान्त 3 | वृतान्त 4 | वृतान्त 5 | वृतान्त 6 | वृतान्त 7 | वृतान्त […]