सत्येन्द्र – वृतान्त 11

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“क्या सोच रही हो दी?”, मेनका बोली।

स्नेहलता की आँखें नम थीं। अपने ख्यालों से बाहर निकलते ही उसने उँगलियों की मदद से अपने आँसुओं को गिरने से रोका। फिर मेनका की ओर देखते हुए बोली, “तुम सही कहती हो मेनका। सत्येन्द्र को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए थी।”

फिर थोड़ा रुक कर, थोड़ा झिझकते हुए बोली, “…पर हुई। शायद यह भी तो एक सच ही है ना?”

“महिला अधिकारों की बात करने वाली मेरी दी ऐसा बोलेगी यह कभी मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।”

“मैं तुम्हारा पक्ष समझती हूँ मेनका। तुम्हें जो लग रहा है वह गलत नहीं है। सत्येन्द्र हर मायने में तुम्हारा अपराधी है। पर सत्येन्द्र का सच अगर पूरा सच ना हो तो भी आधा सच तो हो ही सकता है ना? तुम भी सत्येन्द्र के बारे में इतना तो शायद जानती ही हो कि वह अपने को बचाने के लिए बेवजह झूठ नहीं बोलेगा।”

“मुझे पता नहीं दी की मैं किसको जानती हूँ और किसको नहीं? और आपका यह शब्दों का हेरफेर भी मुझे समझ नहीं आता।”

“तो क्या तुम्हें पूरा विश्वास है कि उसके तथाकथित सच में उसके असल सच के होने की कोई गुंजाईश नहीं है?”

“मैं तो बस इतना जानती हूँ की मैंने ना कहा था। और मेरी ना की इज्ज़त होनी चाहिए थी। उसे समझा जाना चाहिए था!”

“पर यह भी तो सच है ना की तुम्हारा शारीरिक रिश्ता हुआ ही बल के आधार पर था। अगर सत्येन्द्र अपने अन्दर छुपे पितृसत्ता के जानवर को जगा कर अपने को लुभा रहा था तो तुम भी कहीं ना कहीं उसी पितृसत्ता को बल दे रही थी, कमज़ोर बन कर।”

“दी, यह सब बहस की बातें है। क्या आप मुझ पर आरोप लगा रहीं हैं?”

“आरोप नहीं लगा रही मेनका। आरोप लगाना होता तो यह मुद्दा अदालत में उछल सकता था।”

“कोई एहसान नहीं किया आपने। कानून ने उस पर बंदिशें लगा रही है।”

“मेनका, बंदिशें तो होती ही तोड़ने के लिए हैं। रोज टूटती हैं। और अगर बंदिश ना भी होती ना, तब भी ऐसा नहीं होता। साबित तो नहीं कर सकती पर पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि मैं अपनी सामाजिक लड़ाईयों को अपने निजी मसले के कारण हारने नहीं देती। अगर मेरे निजी व्यवहार और सामाजिक विचार में फर्क आ गया तो मैं किस मुँह से किसी के लिए आवाज़ उठा सकूँगी? कलमखोर ही बनना होता तो अब तक परिवार बसा चुकी होती। ऑक्सफोर्ड में पढ़ाने का ऑफर आया है। वहाँ चली जाती। सत्येन्द्र तो कब से चाहते थे कि हमारे बच्चे हों, हम एक आम दंपत्ति के रूप में भी जीवन जियें पर मैं ही उससे समय उधार माँग माँग कर वह सब करने कि कोशिश कर रही हूँ जो मैं तहे दिल से चाहती हूँ। शब्दों को घुमा फिरा कर मैं तुम्हें कुछ साबित नहीं करना चाहती हूँ मेनका। बस इतना जानती हूँ कि अगर ग़लतफ़हमी की थोड़ी भी गुंजाईश है तो सत्येन्द्र बहुत बड़ी सजा भुगत रहा है उस ग़लतफ़हमी की।”

“आप चाहती क्या हैं?”, बात काटते हुए मेनका ने सीधे पूछ डाला।

“तुम्हारे और सत्येन्द्र के सम्बन्धों का मुद्दा प्रीति ने अदालत में कभी नहीं उठाया। हम बस यह साबित करने में लगे रहे की उस रात कुछ हुआ ही नहीं। मुझे सत्येन्द्र सब बता चुका था। प्रीति चाहती थी की इस बात को अदालत के सामने रखा जाए पर सत्येन्द्र ने अपने बचाव के लिए इस बात को अदालत में रखने से साफ़ इनकार कर दिया। जाहिर है की हम यह बात साबित नहीं कर सके कि वह घटना काल्पनिक है। तुम्हें भी लगा होगा की हम कितने नीचे गिर चुके है। तुम्हें और तुम्हारे आरोपों को झुठलाने में लगे हैं। पर और क्या रास्ता था हमारे पास?”

स्नेहलता रुकी। उसने एक घूंट पानी पिया। और कुछ क्षणों के लिए थमने के बाद आगे बोली, “अब वह रास्ता भी बन्द हो गया है मेनका। मैं तो बस इतना कहना चाहती हूँ कि सत्येन्द्र को ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए थी, पर अगर हुई है तो उसके लिए सात साल बहुत बड़ी सजा है। और यह सब मैं तब कह रही हूँ जब वह मेरा भी अपराधी है। उसने मेरा भी विश्वास तोड़ा है। उसने हमारे संबंध की सच्चाई को झुठलाया है। तुम्हारी ही तरह उसने मुझे भी बुरी तरह से खरोंच दिया है।”

मेनका कुछ नहीं बोली।

थोड़ी चुप्पी के बाद स्नेहलता ने मेनका से पूछा, “तुम्हारी ओर से कोई गुंजाईश है?”

“किस बात की?”

“…कि हम अदालत में यह पक्ष रखें और तुम… हम हाई कोर्ट जाने की सोच रहे हैं!”

“मैं कुछ वादा नहीं कर सकती दी! अगर आप यह मसला अदालत में लाना चाहती हैं तो बेशक ले आएँ। मैं खुशी खुशी हाँ तो नहीं कहूँगी पर आपको रोकना भी नहीं चाहती।”

दोनों चुप हो गए। कुछ समय तक किसी ने कुछ नहीं कहा। फिर अचानक मेनका बोल पड़ी, “मैं बस इतना कह सकती हूँ कि प्रीति दी जो कुछ पूछेगी उसका सही और सच्चा जवाब देने की कोशिश करुँगी। और यह भी शायद इसलिए क्योंकि इस सब में आपका कोई दोष नहीं है। आप भी, मेरे जितना ना सही, पर एक उम्रदराज़ आदमी की नाबालिग सोच का खामियाज़ा भुगत रहीं है।”

“तुम यह तो नहीं समझोगी ना कि हम तुम्हारे चरित्र पर सवाल उठा रहें हैं?”

“वो तो उठ चुके हैं दी! अब मुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।”

“थैंक यू मेनका!”, कहती हुई स्नेहलता जाने के लिए उठी। मेनका उठ कर जब उसके पास आई तो स्नेहलता अनायास ही मेनका से लिपट कर रोने लगी। मेनका के भी आँसू निकल आए। कई मिनटों तक वे लिपट कर यूँ ही रोते रहे। इस पूरे हादसे के दौरान स्नेहलता आज पहली बार खुल कर रोई थी। मेनका भी अलंकार के अलावा किसी के सामने कमजोर नहीं पड़ी थी। वैसे कमजोर तो वह अब भी नहीं थी। वे दोनों तो बस आपकी बेबसियों को आत्मसात कर रहे थे।

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वृतान्त 12 > आखिरी भाग!

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1 Response

  1. October 9, 2022

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