सत्येन्द्र – वृतान्त 12

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ठीक एक महीने बाद हाई कोर्ट में तारीख लगी। इस बीच मेनका और स्नेहलता की कोई मुलाकात नहीं हुई। दोनों ही अपने जीवन के टूटे धागों को बांधने की नाकाम कोशिशें कर रहे थे। और इंतज़ार कर रहे थे अगली तारीख का।

हाई कोर्ट में पैरवी शुरू होते ही प्रीति बोली, “योर ऑनर, लोवर कोर्ट में गवाहों के बयानों और सबूतों पर हमें कोई आपत्ति नहीं है। हम बस एक बार पीड़िता को क्रौस एक्ज़ामिन करना चाहते हैं। अगर आप इज़ाज़त दें तो उसी से कार्यवाही शुरू करना चाहेंगे। पीड़िता को भी इस पर कोई आप्पति नहीं है।”

प्रीति के इस बयान पर अलंकार ने कोई आपत्ति नहीं जताई। मेनका के कटघरे में आते ही प्रीति ने बिना इधर उधर की बातें करे, सीधे ही पूछ डाला, “मेनका, क्या यह सच है कि तुम्हारे और सत्येन्द्र के शारीरिक सम्बन्ध थे।”

हिचकिचाते हुए मेनका बोली, “हाँ!”

“क्या यह सच है कि तुम्हारे शारीरिक सम्बन्ध की शुरुआत हमेशा बल प्रयोग से होती थी?”

“जी!”, झिझकते हुए मेनका बोली।

“क्या यह सच है की इसमें तुम्हारी सहमति थी। यानि की हर बार जब तुम दोनों के बीच सम्बन्ध हुए तो पहले सत्येन्द्र जोर जबरदस्ती करता था, तुम मना करती थी, और फिर तुम दोनों प्रेम करते थे?”

कुछ देर तो मेनका चुप रही फिर उसने, बिना किसी से नजर मिलाए, होले से हामी भर दी।

सत्येन्द्र ने आश्चर्यचकित होते हुए मेनका की ओर देखा। उसके चेहरे की पीड़ा साफ़ दिखाई दे रही थी।

“क्या यह सम्भव है की घटना के दिन तुम्हारे इनकार को सत्येन्द्र ने हाँ सोचा हो?”

“उसे मेरी ना को समझना चाहिए था!”

“वह एक अलग बात है मेनका। पर क्या यह हो सकता है की सत्येन्द्र ने तुम्हारी ना को हाँ मान लिया हो, हमेशा की तरह?”

मेनका ने अलंकार की ओर देखा। अलंकार सिर हिलाते हुए उसे ना कहने का इशारा कर रहा था।  मेनका मंझधार में फँसी थी। उसने प्रीति की ओर देखा ओर फिर सत्येन्द्र की ओर। सत्येन्द्र सिर झुकाए बैठा था। फिर उसकी नज़र स्नेहलता की ओर गई। स्नेहलता का चेहरा भावहीन था। वह एकटक मेनका को देख रही थी। दोनों कई सेकंड तक एक दूसरे की आँखों में झाँकते रहे। फिर मेनका ने मुड़ कर न्यायाधीश महोदय की ओर देखा और बोली, “शायद!”

“शायद! मतलब की यह मुमकिन है कि तुम्हारे इनकार को सत्येन्द्र ने सच में हाँ सोचा हो? हमेशा की तरह।”

“शायद!”, हिचकिचाते हुए मेनका बोली।

“इसका मतलब कि यह घटना बलात्कार की ना हो कर एक ग़लतफ़हमी की भी हो सकती है जिसका दर्द तुम जितना भोग रही हो उतना ही शायद सत्येन्द्र भी भोग रहा है?”

मेनका ने सत्येन्द्र की ओर देखा। सत्येन्द्र अब भी सिर झुकाए बैठा था। उसे सत्येन्द्र का ईमेल याद आ गया। मन तो कर रहा था की साफ मुकर जाए पर उसका दिमाग नहीं माना। वह किसी को सजा देने वाली होती कौन है, उसने सोचा। हमारी सजा तो हम खुद ही देते हैं, खुद को। सजा दे कर या दिला कर कौन सा उसकी जिंदगी संवर जाएगी। उसे डर भी था कि कहीं वह एक भंवर से निकल कर दूसरे में ना फँस जाए। वह अब तो बस यही चाहती थी कि यह मसला खत्म हो और वह अलंकार के साथ कहीं दूर निकल जाए, इन सब लोगों, बातों और यादों को पीछे छोड़ कर। मेनका से कोई उत्तर ना पा कर प्रीति ने अपना सवाल दोहराया। अपने उम्मीदों के काफिले से बाहर निकल मेनका हड़बड़ा कर बोली, “शायद हाँ! शायद नहीं!”

“मतलब ग़लतफ़हमी की गुंजाईश तो है ना मेनका?”

“हाँ, शायद!”

यह सुन कर न्यायाधीश की ओर देखती हुई प्रीति बोली, “मैं और कुछ नहीं कहना चाहती जज साहब!”

न्यायाधीश ने अलंकार की ओर देखा। अलंकार कुछ कहने के लिए उठा ही था कि उसकी नज़र मेनका की ओर गई। उसे कुछ ना कहने के लिए मेनका सिर हिला कर इशारा कर रही थी। स्नेहलता एकटक मेनका को देख रही थी। अलंकार ने थोड़ा खीजते हुए अपना सिर हिलाया और बोला, “हमें भी कुछ नहीं कहना है जज साहब!”

उसके यह बोलते ही स्नेहलता की आँखों से आँसू छलछला आए। वह उठी ओर तेज क़दमों से कोर्ट के बाहर चली गई। कुछ देर तक हल्की फुलकी कानूनी बहस चली और फिर न्यायाधीश ने लोवर कोर्ट का आदेश ख़ारिज करते हुए सत्येन्द्र को बरी कर दिया। इस बात के बाहर जाने से पहले ही मेनका और अलंकार कोर्ट से चले गए।

सत्येन्द्र काफी देर तक उस कुर्सी को एकटक देखता रहा जहाँ स्नेहलता बैठी थी। उसे जब कोर्ट से बाहर लाया गया तो वहाँ अनगिनत लोग थे, मित्र थे, मीडिया थी, पर स्नेहलता नहीं थी। भारी क़दमों से वह पुलिस से साथ चला गया। सारी कागजी कार्यवाही पूरी होने पर अगले दिन जब वह जेल से बाहर आया तो कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। उसने टैक्सी की और सीधे घर पहुँचा।

घर का दरवाज़ा बंद था और उसके पास चाबी नहीं थी। चाबी, हमेशा की तरह, बिजली मीटर के बॉक्स के ऊपर थी। उसने भारी मन से दरवाजा खोला। वह चाहता था कि उसे बंद दरवाजे के भीतर कोई इंतज़ार करता हुआ मिल जाए, यह जानते हुए भी की बंद दरवाजों के पीछे केवल खामोशी रहती है।

वह डरते डरते भीतर गया पर वहाँ कोई नहीं था। उसने फिर भी सारे कमरों में खोजा पर उसे कोई नहीं मिला। आखिर हताश हो कर आराम कुर्सी पर बैठ गया। तभी उसकी नज़र दीवार पर पड़ी। दीवार पर लटके कई फोटोफ्रेम गायब थे। किताबों की अलमारी को देखा तो वहाँ से लगभग आधी किताबें गायब थी। वह दौड़ कर अपने कमरे में गया। कमरा भी कुछ अधूरा अधूरा सा था। उसने डरते हुए कपड़ों की अलमारी खोली। वहाँ से स्नेहलता की खुशबू नदारद थी।

सत्येन्द्र के प्रीति को फोन किया पर प्रीति को पता नहीं था कि स्नेहलता कहाँ है। सत्येन्द्र ने स्नेहलता के कुछ अन्य दोस्तों को भी फोन किया पर किसी से कुछ पता नहीं चला। पर सत्येन्द्र महसूस कर पा रहा था कि सबको सब पता है पर सब कुछ बताना नहीं चाहते।

***

“पक्का कुछ नहीं बताना चाहती हो उसको?”, प्रीति ने स्नेहलता से पूछा।

“बता तो दिया यार। और कितनी बार बताऊँ। जाने का निर्णय तो ले ही लिया था ना, चाहे कुछ भी नतीजा आए। जितना ढोना था उतना ढो लिया मैंने उसको। फर्ज निभा दिया अपना। अगर वह उसकी गलतफहमी थी तो उसे उसकी सजा न मिले उसके लिए लड़ ली मैं। हो गया ना?”

“हाँ, वह तो ठीक है। पर सत्येन्द्र कुछ उलट सुलटा कर बैठा तो?”

“वो उसकी मर्जी है। पर अब मैं और नहीं सोचना चाहती हूँ उसके लिए। कानूनी रूप से इस बोझ को हटाने की जिम्मेदारी तेरी है इसलिए उस बारे में भी नहीँ सोच रही हूँ। जहाँ कहेगी साइन कर दूँगी। बस अब एक कदम भी नहीं चलना उसके साथ।”

“ठीक है बाबा। मत बता उसको। बाकी सारा मामला मैं संभाल लूँगी। पर अब सो जा। चार बजे की फ्लाइट है। जाते ही तेरा कॉलेज शुरू हो जाएगा। नया देश। नए लोग। नया मौसम। और इतने दिनों की थकान। जाते ही बीमार मत पड़ जाना परदेश में!”

“पड़ गई तो तू है ना। आएगी ना मेरी देखभाल करने?”

“यार, लंबे समय से मेरा सपना रहा है इंग्लैंड घूमने का। कभी मौका ही नहीं मिला। पर अब तो इंग्लैंड आना जाना लगा रहेगा – प्रोफेसर स्नेहलता के घर! वह भी ऑक्सफोर्ड में! यार मेरे लिए भी कोई फैकल्टी पोज़िशन का जुगाड़ कर ना। सपरिवार आ जाऊँगी। फिर आराम से रहेंगे। सबकुछ मस्त हो जाएगा!”

बड़े दिनों बाद स्नेहलता आज सच में मुस्कुराई थी इसलिए प्रीति ने अपने खुशी के आँसू छुपा लिए और गुडनाईट कहते हुए अपने कमरे में चली गई।

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इति > वेब सीरीज के अंत तक साथ निभाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया!

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