सपनों का शवगृह
जब सपने मरते हैं तो वे विलुप्त नहीं होते। वे अमूमन जलाए या दफनाए भी नहीं जाते। वे तो पड़े रहते हैं सपनों के शवग्रह में – किसी चमत्कार के इंतज़ार में। और हम हैं कि अतीत के भूत प्रेतों के डर से सपनों के शवग्रहों में जाने से घबराते हैं। अब जाएंगे ही नहीं तो चमत्कार कैसे होगा?
सपनों का शवगृह
मेरे हर इक सपने का
होता अपना है जीवनकाल,
मिनट, घंटे, दिन, हफ्ते, महीने,
तो कुछ जीते सालोंसाल,
मैं ही जनक, मैं ही जननी,
सपने मेरे ही बाल गोपाल,
मैं ही दाता, मैं विधाता,
मुझसे ही उनकी मृत्यु अकाल,
सपनों के शवगृह में शव जो,
वे सब मेरे ही अपने हैं,
मैं कारक उनके आदि-अंत का,
वे अब भी मेरे सपने हैं।