नामकरण
दो छोटे खेतों, एक भैंस, दो गाय और छह बकरियों के कारण गाँव शहर न जा सका। और गाँव तथा पास के पहाड़ी शहर में नदारत स्वास्थ्य व्यवस्था के चलते शहर गाँव नहीं आ पाया। इसलिए तय हुआ की शिवराज, अपनी पत्नी सावित्री, और 20 दिन के बच्चे के साथ गाँव आएगा ताकि 21वें दिन नामकरण हो सके। खानदान के पहले सरकारी अफसर ने खानदान को पहला चिराग जो भेंट किया था।
शिवराज के गाँव पहुँचने से पूर्व सारी व्यवस्थायें हो चुकी थी। तंबू खींच चुका था, बकरा कट चुका था, और बिरादर आ चुके थे। इस तोक में पहली बार दरियों की जगह प्लास्टिक की कुर्सी मेज लगे थे। और लगते क्यों नहीं? आजादी के 70 साल बाद, आरक्षण के बावजूद, इस तोक का पहला लड़का सरकारी विभाग में द्वितीय दर्जे के अफसर के रूप में कार्यरत हुआ था।
सबको शिवराज पर गर्व था पर वह शाबाशियाँ सुन कर कभी कभार खीज उठता था। उसे आगे जाकर पता चल गया था की उसका समाज कितने पीछे छूट गया हैं। जाति धर्म की बातें होते ही वो तुनक जाता। इसी लिए जब बाबू ने बताया की बगल के गाँव का महावीर सुबह सुबह पूजा पाठ करने पहुँच जाएगा तो शिवराज गुस्से में तमतमा गया।
“यार बाबू, मेरी पहली तनख्वाह से 1001 रूपए आप गाँव के मंदिर में दे आए और वहाँ का पंडित आपके घर पूजा पाठ करने तक नहीं आता। अछूत का पंडित भी अछूत। हद होती है यार! भागवत में भी आपने 501 रुपये दे दिए और रस्सी के दूसरी ओर बैठ कर सारी रामकहानी सुनी, जो आपको शायद समझ भी नहीं आई।”
“तुम नए लौंडों की यही तो बुराई है। हर चीज पर उँगली उठा देते हो। देवी का आशीर्वाद नहीं होता ना तो बारह साल की उमर में तुम परलोक सिधार गए होते। अब खुशी के माहौल को मत बिगाड़ो। तुम अपने हिसाब से बाद में जी लेना पर जब तक हम हैं, हमें अपने हिसाब के काम कर लेने दो।”, थोड़ा गुस्सा होते हुए शिवराज के बाबू बोले। उनका गुस्सा जग जाहीर है पर आज वो खुश थे इसलिए मामला नहीं बिगड़ा।
अगली सुबह नियत समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ। असली पंडित नहीं था, पर था सब पंडितों जैसा। खाना बनाने वाले भी बाहर से आए थे। हर बार की तरह हलवा, दाल, भात, मिक्स्ड सब्जी और रायते के अलावा चाउमिन, सूप और रस गुल्ले भी थे। स्टील की बेडौल होने लगी ग्राम सभा की थालियों की जगह थर्मोकोल की सफेद प्लेटें थी। शराब भी थी जो छुप कर पी गई पर उसका असर खुले में दिखा। दिन कैसे गुजरा मालूम ही नहीं चला।
अगले दिन सुबह सुबह बाबू को कहीं जाने के लिए तैयार होते देख शिवराज ने पूछा, “कहाँ जा रहे हो बाबू। अभी तंबू वाला हिसाब करने को आएगा। उसके बाद चले जाना।”
“अरे उन्हें जाने दे बेटा। खाली पेट जा कर माथा टेक आयेंगे। पण्डितजी को भी तो दक्षिणा देनी हुई!”
“फिर वही बात आमा! जो आपके दरवाजे पर आना अधर्म समझता है तुम उसे पैसे देकर क्यूँ आते हो? हमारी छाया से उन्हें आपत्ति है पर हमारे पैसे से नहीं? हमारा कमाया पैसा अछूत नहीं होता क्या आमा?”, शिवराज कटाक्ष करते हुए बोला।
आमा कुछ नहीं बोली पर बाबू बिन बोले ना रह सके, “तुम आज कल के घमंडी लौंडे कहाँ समझोगे! अरे हम माथा पंडित के यहाँ नहीं भगवान के वहाँ टेकते हैं। आशीर्वाद पंडित का नहीं भगवान का माँगते हैं। अभी थोड़े सयाने हो जाओगे ना तो खुद ही समझ जाओगे।” यह कहते हुए बाबू आँगन से बाहर निकल गए। शिवराज की गोद में लेटा उसका 22 दिन का बालक उसे देख मुस्कुरा रहा था। और शिवराज उसे निहारते हुए सोच रहा था की इस नादान बालक के लिए वो किससे आशीर्वाद माँगेगा?