सौंदर्यबोध
सुंदर पहाड़ी रास्तों पर चलते हुए अक्सर तन थक जाता है पर मन नहीं। इसलिए जैसे ही मुझे सुन्दर बुरांश के फूल दिखे मैं अपनी सारी थकान भूल सा गया और अपने बालकपन में लगभग फुदकते हुए जोर से बोल बैठा, “अहा, कितना सुन्दर फूल है! “
फिर मैंने अपने हमसफ़र की ओर देखा। सोचा वो भी खुशी से छलक रहा होगा पर वो मुझे तिरछी नज़रों से घूर सा रहा था। हमारी नजरें मिली ही थी की वो खीजते हुए बोल बैठा, “यार, तुम कमल के लिए कभी ऐसा क्यों नहीं कहते?”
“अरे? कभी ऐसे अचानक दिखा नहीं सो नहीं कहा! दिखेगा तो बोल दूँगा।”
“वही तो! तुम्हें कमल दिखाई क्यों नहीं देता?”
“यार, अजीब बात करते हो तुम। अब नहीं दिखा तो नहीं दिखा।”
“नहीं दिखा या तुम देखना ही नहीं चाहते?”
“नजर को देखने से कौन रोक सकता है दोस्त? पर तुम कह रहे हो तो शायद दिखा ही होगा।”
“शायद दिखा ही होगा? …यानि तुमने उसे जान बूझकर कर नजरंदाज किया?”
“अब क्या कहूँ दोस्त। मुझे लगता है मैंने जान बूझकर कर तो नजरंदाज नहीं ही किया होगा। शायद जब वो दिखा तब मेरा सौन्दर्यबोध सो रहा होगा।”
“यार, कमल के लिए ही तुम्हारा सौन्दर्यबोध क्यों सो जाता है? बुरांश तो बराबर देख लेते हो!”
मैंने एक लम्बी साँस खींची, हमसफ़र को देख होले से मुस्कुराया और चुपचाप रास्ता बदल लिया।