किसका पहाड़
काश यह कहानी केवल पहाड़ की होती। मिल बैठ कर सुलझा लेते इसे। पर पहाड़ भी महज एक कोना ही तो है इस संसार का। उसे भी दुनिया वैसी ही दिखाई देती है जैसी बाकि सब को। इसीलिए पहाड़ भी वक्त जाया करता है इस संवाद में कि यह जमीन किसकी है, यह प्रदेश किसका है, यह संस्कृति किसकी है, यह देश किसका है…
अपने स्वामित्व को साबित करने की कोशिश में हम अक्सर यह भी भूल जाते हैं की मूलता कभी निश्चयात्मक नहीं होती। अन्य सभी चीजों की तरह वह भी संबंधपरक ही होती है। क्योंकि हम भूल जाते हैं इसलिए मुद्दों का संदर्भ भी भटकता रहता है। वह कभी हिमालय का हो जाता है तो कभी संसार का, कभी संस्कृति का तो कभी अधिकार का, और हम हो जाते हैं उतारू औरों को निम्न साबित करने के लिए, यह जानते हुए भी किसी अन्य को नीचा साबित कर कभी ऊँचा नहीं हुआ जाता। अगर ऐसा होता तो पेड़ 50 फीट के होते और हिमालय महज 500 फीट का।
किसका पहाड़
वक्त में कितने पीछे जाओगे,
खोजते हुए,
कि किसका है हिमालय?
कि कौन है पहाड़?क्या उनका है पहाड़
जो रहते हैं यहाँ,
या उनका जो हिमालय को करते हैं याद,
मैदानों में रहते हुए?क्या उन राजाओं का है पहाड़
जिनके सिर था ताज,
या उन जातियों का
जिन्होंने यहाँ किया राज;
या उनका जो अन्य
समाजों, देशों, राज्यों से आए,
या उनका जो सदियों से हैं
इस मिट्टी में समाए?अक्सर सोचता हूँ
कि किसके पुरखों ने
लाखु उडयार की चट्टानों में
चित्र बनाए?
औरों की ही तरह
वे कब, क्यों, कैसे
यहाँ खींचे चले आए?गौर करें तो
बात यह नहीं है
कि किसका है हिमालय,
या कौन है पहाड़;
बात यह भी नहीं
कि कौन पहले आया;
असल बात
बस इतनी सी है
कि किसने
इस मिट्टी को अपनाया,
और किया उद्घोष
कि हिमालय मेरा है,
कि मैं हिमालय का हूँ;
कि हिमालय समंदर से उठा
और मैं दुनिया के
अलग अलग कोनों से;
ताकि एक हो कर
हम बन सकें
पहाड़!
लाखु उडयार एक प्रागैतिहासिक शरणस्थल है। माना जाता है कि यहाँ की चट्टानों पर उकेरे गए चित्र आदिकाल के मानवों की अभिव्यक्ति है। यह स्थल अल्मोड़ा से थोड़ा आगे पेटशाल के समीप है।
आपने पहाड़ की सही व्याख्या कर दी। स्वयं पहाड़ तो कुछ कह नहीं सकते, हमें ही उन्हें समझना होगा। पहाड़ की बात पर मुझे अजेय की पंक्तियां याद आती हैं-
पहाड़ बोलते
तो बोलते
वे क्यों नहीं बोलते
“पहाड़ बोलते
तो बोलते
वे क्यों नहीं बोलते”
वाह!