आईआईटी, आईआईएम और जेएनयू

भीड़ में इन्सान को पहचाना कठिन होता है। इंसानों को उनके कर्मों से पहचाने के लिए काफी वक्त चाहिए जो अमूमन लोगों के पास नहीं होता। इसलिए जमाना तमगों का है। हम क्या हैं वह ‘हम’ नहीं बल्कि हमारे ठप्पे तय करते हैं।

ठप्पे जाति, क्षेत्र और धर्म के तो होते ही थे, अब वे डिग्रीयों के भी हैं। पर हम उनसे उतना परहेज नहीं करते जितना जातियता, क्षेत्रयिता, या सांप्रदायिकता से करते हैं। यह डिग्रीयाँ  केवल नौकरियाँ और नौकरियों में तनख्वाह ही नहीं, डिग्रीधारक के कथन का वज़न भी तय करती हैं। यह बात साबित करने के लिए मेरे पास अनगिनत उदाहरण हैं। आपके पास भी जरूर होंगे।

यद्यपि यह असमानतायें हमें साफ दिखाई देती हैं, हम चुप रहते हैं क्योंकि शायद हम भी चाहते हैं की हमें, या हमारे करीबियों को यह सत्ता प्राप्त हो। काश इस सब में हम यह देख और समझ पाते की शायद जातियाँ कैसे बनी और खोज पाते जाति जैसी व्यवस्थाओं को खत्म करने के कुछ कारगर उपाय।

आईआईटी, आईआईएम और जेएनयू

आईआईटी और आईआईएम के
उत्पाद बड़े ही तेज,
दुनिया बल्ली रहकर सड़ गई,
और ये बन गए कुर्सी मेज;

चुने हुए ये पुष्प जो बुनते
स्वर्णिम भविष्य की सेज,
भूरे भारत के भूरे लोगों के
यह भुर्रन अँगरेज़।

किसी के पप्पा जेईई
और किसी के पप्पा कैट,
कुछ विरलों को तो मिला
दो पप्पाओं की भैंट;

जननियाँ एकल बुद्धिजीवियों की,
बस जेएनयू को छोड़,
बामनवादी इतिहास का यह
एक रोमांचकारी मोड़।

बुद्धिजीवी ये नवभारत के,
ये भारत का ज्ञान,
ये भारत का रुपया पैसा
और भारत का अभिमान;

सुना तो होगा कभी आपने
इनका यह उदघोष,
“बाकि सब हैं यंत्र के पुर्जे,
और हम यंत्र का जोश!”

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