सत्येन्द्र – वृतान्त 4
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मेनका अपनी कहानी बताने को तैयार तो हो गई पर उसे समझ नहीं आ रहा की वह बात शुरू कहाँ से करे। समय में कितना पीछे जाए। उसकी यादों का सिलसिला उसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन ले गया। वह सत्येन्द्र के साथ बंगाल के लिए रवाना हो रही थी। स्नेहलता उन्हें छोड़ने स्टेशन आई थी।
बंगाल पहुँच कर वे दोनों बंगाल की धरती में ऐसे रम गए कि उन्हें समय का एहसास ही नहीं रहा। बस, ट्रेन, बैलगाड़ी… सभी की सवारी की। कभी कभी मीलों पैदल भी चले। तरह तरह की जगहों में रहे और ना जाने क्या क्या खाया। उनकी डायरियाँ, रिकॉर्डर, लैपटॉप… सभी भर चुके थे। तरह तरह के लोगों से मिल कर, उनके रंग में रंग कर दोनों भाव विभोर हो गए थे। देखते ही देखते 20 दिन गुजर गए। सफर के आखिरी पाँच दिन उन्हें कलकत्ता में गुजारने थे। अपनी खोज को सामाजिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के लिए उन्हें कल्कत्ते में कई विद्वानों से मिलना था।
कलकत्ता पहुँच कर जब वे होटल के रूम में पहुँचे तो उन्हें लगा मानो उन्हें स्वर्ग मिल गया हो। पिछले तीन हफ़्तों से उन्हें ठीक से नहाने तक का मौका नहीं मिला था। सोने के लिए नरम बिस्तर, नहाने के लिए गरमागरम पानी, कमरे में ए.सी., फोन पर मनपसंद खाना आर्डर करने की सुविधा… पूरा मजा उठाया दोनों ने इस ऐशो आराम का। सत्येन्द्र के रूम में बैठे वे ठण्डी बियर का आनन्द ले रहे थे। मेनका अपनी डायरी के पन्ने छान रही थी। वह कुछ कहने ही वाली थी की सत्येन्द्र बोला, “आज काम की कुछ बात नहीं होगी मेनका। कल फिर से ढेर सारी गम्भीर बातें करनी है इसलिए आज दिमाग को हल्का करना चाहिए।”
मेनका ने मुस्कुराते हुए डायरी बन्द की और बोली, “और कैसे होगा आपका दिमाग हलका?”
“बस यहाँ वहाँ की बातें करके। तुम कुछ अपनी सुनाओ, कुछ मेरी सुनो!”, सत्येन्द्र हँसते हुए बोला।
“बीते हफ़्तों में मुझे कभी भी नहीं लगा की आप ऐसो आराम को मिस कर रहे हैं। हम कई ऐसी जगह गए जहाँ आराम से रहने के इंतज़ाम हो सकते थे पर आपने खुद ही मना कर दिया।”
“उसकी वजह थी मेनका। मैं आराम के चक्कर में सीखने और जानने का कोई मौका खोना नहीं चाहता था। जमीन के करीब रहने की बहुत जरूरत महसूस हुई मुझे।”
“वो बात तो है। मेरे लिए तो यह बिल्कुल नया अनुभव था। आप तो काम में ऐसे डूबे थे मानो इसके अलावा कुछ है ही नहीं दुनिया में देखने सोचने को। आपने स्नेहलता दी को तो मिस किया होगा ना?”
“फुर्सत कहाँ थी मिस करने की। आज मिस कर रहा हूँ। तुम मिस नहीं करती किसी को?”
“मेरा कौन है मिस करने को?”
“जवान हो, बुद्धिमान हो, सुन्दर हो… फिर भी कोई नहीं है मिस करने को? बड़ी अजीब बात है। कोई ऐसा तो होगा जो शायद तुम्हें मिस करता होगा?”
“उसकी कभी गुंजाइश नहीं रखी मैंने।”
“क्यों, ऐसा क्या हो गया?”
“लम्बी कहानी है!”
“आज वक्त भी है और दस्तूर भी। सुना डालो!”
“आज तक किसी को नहीं सुनाई। उसका ना सुनाया जाना ही ठीक रहेगा।”
“मुझे अकेले लोग अच्छे नहीं लगते मेनका। चाहता हूँ की सभी को कम से कम दुकेला तो कर दूँ।”
“वो तो ना हो पाएगा आपसे!”
“ऐसा भी क्या हो गया मेनका। जरा हम भी तो सुने तुम्हारी दास्तान।”
“दास्तान लम्बी है।”
“बहुत समय है मेरे पास। कम पड़ेगा तो कल भी कमरे में ही रुक कर तुम्हारी लम्बी कहानी सुनने के लिए तैयार हूँ।”
“बहुत निजी मसला है।”
“तो हम कौन से पराये हैं?”
“वो बात तो है पर फिर भी…”
“फिर भी क्या? अब बोल भी डालो। इतने दिनों में लोक से कुछ सिखा नहीं क्या? दबा हुआ भाव नासूर बन जाता है इसलिए उसे कलात्मक स्वरूप दे कर आज़ाद कर देते हैं लोग।”
मेनका की आवाज़ में बीयर का असर दिखने लगा था। उसकी आवाज़ में बेफिक्री थी। इतना खुल कर उसने सत्येन्द्र से कभी बातें नहीं की थी पर इन तीन हफ़्तों ने उसे सत्येन्द्र के काफ़ी पास ला दिया था। वह उसे अपना गुरु ही नहीं दोस्त भी मानने लगी थी।
“थोड़ी अजीब सी बात है। समझ नहीं आ रहा कि कैसे कहूँ!”
“अब पहेलियाँ मत बुझाओ, बोल दो! या फिर साफ मना कर दो। तुम्हारा यह सस्पेंस बियर का मजा खराब कर रहा है।”
थोड़ा झिझकते हुए मेनका बोली, “मुझे लगता है कि शारीरिक सम्बन्ध रिश्तों के मूल आधारों में से एक है। शादी तो क्या, आजकल इश्क भी इस सम्बन्ध के बिना अधूरा है। और मैं शायद इस सम्बन्ध के काबिल नहीं हूँ। मुझे डर लगता है।”
“डर? क्यों? ऐसा क्या हो गया? “
“हुआ था कुछ जो चाह कर भी मैं भूल नहीं पाती।”
“यार पहेली मत बुझाओ। नहीं बताना है तो कोई बात नहीं पर ऐसे सस्पेंस अच्छे नहीं लगते मुझे।”
मेनका चुपचाप बियर की चुस्की लेती रही और सत्येन्द्र की आखों में देखती रही। सत्येन्द्र ने भी अपनी नज़रें नहीं हटाईं। कमरे के अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। फिर अचानक नज़रें फेर कर मेनका खिड़की से बाहर देखते हुए बोलने लगी।
“20 साल की थी। पापा के ऑफिस की पार्टी थी। वहाँ मुझे एक नौजवान पुलिस अफसर मिला। नज़रें मिलते ही पसन्द आ गया। उसने पहल की और हम बातें करने लगे। बहुत दिलखुश इन्सान था। उससे बात करने में मज़ा आ रहा था इसलिए जब पापा घर जाने को हुए तो मैंने कहा कि मैं बाद में आ जाऊँगी। काफी देर रात तक बातें करने के बाद हम दोनों उसके फ्लैट चले गए। मैं कुछ चाहती नहीं थी। या शायद जानती नहीं थी कि कुछ चाहती हूँ कि नहीं। इसलिए मुझे लगा कि समय के साथ बह जाना ही ठीक रहेगा। वह जब मुझे छूने लगा तो मुझे अच्छा लगा। कुंवारी थी। दोस्त मजाक उड़ाते थे। मैंने सोचा की मामला जहाँ भी जा रहा है उसे जाने दिया जाए। उसका स्पर्श, और फिर उसका आलिंगन मुझे एक अलग ही दुनिया में ले गया। मैं उड़ने लगी। और उड़ते उड़ते हम कब बिस्तर तक पहुँच गए मुझे पता ही नहीं चला। पर जब हम असल मुद्दे तक पहुँचे तो वह अचानक बदल गया। वह प्रेमी से अचानक दरिंदा सा हो गया। उसके स्पर्श की कोमलता कठोरता में बदल गई। वह आशिक से अचानक आदमी बन गया और उसने अपना सारा पौरुष मेरे शरीर पर यूँ झोंक दिया मानो मैं कोई जानवर हूँ और वह शिकारी। मुझे लगा कि वह प्रेम नहीं बल्कि मुझे वश में करना चाहता था – अपनी पूरी ताकत के साथ! मैंने उसे रोकना चाहा पर वह रुका नहीं। मैं दर्द में कराह रही थी। रोने गिड़गिड़ाने लगी थी। पर वह खुश था। थमने की जगह उसने अपनी पूरी ताकत मुझ पर झोंक दी। उसे शायद लग रहा था कि वह मुझ पर अपना प्रेम और पौरुष लुटा रहा है पर मुझे लग रहा था मानो मेरा बलात्कार हो रहा हो।”, यह कहते कहते मेनका सिसकियाँ भरने लगी।
सत्येन्द्र उठा और मेनका के बगल में बैठ कर उसे शान्त कराने की कोशिश करने लगा। जैसे ही उसने मेनका के कंधे पर हाथ रखा, मेनका उसे लिपट गई और दहाड़ मार कर रोने लगी। ऐसी विचित्र अवस्था में खुद को पाकर सत्येन्द्र घबरा सा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था की वह क्या करे। मेनका को अपने से हटाना भी उसे ठीक नहीं लगा इसलिए धीरे धीरे उसका सिर सहलाने लगा।
थोड़ी देर बाद जब मेनका का रोना कम हुआ तो उसने झटक कर अपने को सत्येन्द्र से अलग किया, आँसू पोंछे और बियर की एक लम्बा घूँट ले कर मुस्कुराने की कोशिश करते हुए बोली, “जान लिया मेरा सच? अब बताईए कि मैं कैसे करूँ किसी से इश्क? हर आदमी जो मुझे पसन्द आता है उसमें मुझे वही शिकारी दिखाई देता है। मैं मानने सा लगी हूँ कि हर प्रेमी आखिरकर दरिंदा हो ही जाएगा क्योंकि यह पुरुष का मूल स्वभाव है। हो सकता है मेरा मानना गलत हो। हो सकता है नहीं। उस सदमे से मैं उबर तो गई हूँ पर अब भी कहीं एक कैदी सा महसूस करती हूँ। अपने अनुभवों की कैदी जो हर पच्चीस तीस दिन में खून के आँसू रोती है। खैर, औरत होना और अकेले रहना, दोनों सीख ही लिया है मैंने। जिंदगी मजे से कट रही है। आगे भी कट जाएगी।”
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