लोकतंत्र का ठेका
आज से जात बिरादरी उतना मायने नहीं रखेगी क्योंकि ग्राम और जिला पंचायत के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। पर यह बात शराबी नहीं जानते इसलिए अभी भी अँधेरे को, पेड़ों को और हवा को गालियाँ देते हुए घूम रहे हैं। इनमें से कई, कई दिनों से नशे में है। एक निजी निर्णय का इतना लाभ कभी कभार ही मिलता है।
कल जो शराबी गाँव में घूमते हुए मिले थे उनमें से अधिकाँश आज मतदान केंद्र पर नहीं दिखे। शायद नशा उतरा ही नहीं। और जो पहुँचने में सफल रहे उनकी बात ही निराली थी। मेरे आगे खड़े युवक की जब वोट देने की बारी आई तो वह ठीक से ठप्पा ही नहीं लगा सका। निशाना इतना चूक रहा था की कागज ही नहीं टेबल पर भी कुछ ठप्पे लग गए। चुनाव स्थानीय निकायों का है अतः ई.वी.एम. की जगह कामकाज पुराने हिसाब किताब से चल रहा था जिसमे नोटा नहीं होता। नोटा के लिए मतदान पत्र पर एक से ज्यादा ठप्पे लगाने पड़ते हैं। शराबी, मुफ़्त की पीने के बावजूद, आखिरकार नोटा लगा कर खुशी खुशी बाहर निकल गया।
लम्बी लाइन थी इसलिए लोग समय बिताने के लिए गपशप मार रहे थे। मेरे पीछे खड़ा युवक मुझसे गाँव के विकास की बातें करने लगा। गर्मी, भीड़ और गंध से परेशान मैं किसी से बात नहीं करना चाहता था पर वह बोलता रहा। उस पर से आती शराब की भभक से खीज कर मैं कह बैठा, “मुफ़त की शराब पी पर वोट देने से विकास संभव नहीं है भाई!”
“किसी और की नहीं पीता हूँ। खुद के पैसे की पी है। जिसे मर्ज़ी आये वोट दूँगा”, वो पलट कर बोला।
मुझे बात आगे बढ़ाने में कोई फायदा नहीं दिखा। कल जब नशा उतेरेगा तो उसे शायद खुद याद नहीं रहेगा की वह किसे वोट दे आया है। इससे तो लाख गुना अच्छा नब्बू है जो कल नशे में धुत्त दिन भर गाली गलोज कर रहा था। शाम को जब वो दिखा तो मैंने उसे टोकते हुए कहा, “शर्म नहीं आती, वोट के नाम पर फ़ोकट की शराब पीकर गाली गलोज लड़ाई झगड़ा करते हो और फिर कहते हो गाँव में कुछ अच्छा नहीं होता।”
वो अचानक चुप हो गया फिर कुछ सोच कर अचानक जोर से बोला, “साला नंगा गाँव है। पर मैं नंगा नहीं हूँ। अब पी ली है तो वोट उसे ही दूँगा जिसने पिलाई है। उसे ही दूँगा चाहे कोई साला कुछ कहे। मैं नंगा नहीं हूँ। और हाँ, सुन लो। कसम ले रहा हूँ। कसम! अगली बार नहीं पियूँगा। साला नंगा गाँव है! नंगा!”
यह कह कर वो ‘नंगे लोगों’ को गाली देता हुआ वहाँ से चला गया। बाद में पता चला की वह कुछ ‘अपने’ लोगों के साथ मिल कर दूसरे खेमे के उन लोगों को खोज रहा था जो आखिरी समय तक शराब का लालच दे कर वोट बटोरने की कोशिश में जुटे थे। देर रात आखिरकार जब इन्हें दुसरे खेमे के लोग मिले तो इन्होंने उनकी अच्छी खासी पिटाई की और सारी बोतलें छीन ली। और फिर गाँव का एक सुनसान अँधेरा कोना पकड़ सारा माल गटक गए। शायद उन्हीं बोतलों की बदौलत मतदान केंद्र लोकतंत्र का मंदिर नहीं ठेका लग रहा था। बिजली गुल थी इसलिए लोकतंत्र के उस अंधेरे कमरे में सरकारी मुलाजिम मोबाइल फ़ोन की रौशनी में वोटरों का नाम ढूँढ रहे थे। अपनी बारी के इंतज़ार में खड़ा मैं बहुत देर तक लोकतंत्र के इस ठेके को समझने की कोशिश करता रहा। बस इतना समझ पाया की यहाँ पी कर आने में ज्यादा समझदारी है!