लोकतंत्र

लोग-तंत्र

लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का फर्क दिखने में तो बहुत महीन सा लगता है पर होता बहुत विशाल है। इस फर्क को महसूस करने के लिए नजर नहीं नज़रिये की जरूरत पड़ती है। लगभग यही फर्क हक और ताकत के बीच भी है।

लोकतंत्र का ठेका

आज से जात बिरादरी उतना मायने नहीं रखेगी क्योंकि ग्राम और जिला पंचायत के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। पर यह बात शराबी नहीं जानते इसलिए अभी भी अँधेरे को, पेड़ों को और हवा को गालियाँ देते हुए घूम रहे हैं। इनमें से कई, कई दिनों से नशे में है। एक निजी निर्णय का इतना लाभ कभी कभार ही मिलता है।

वर्तमान ये भूल ना जाना

लोकतंत्र लोक से चलता है। पर लोक कैसे चलता है? प्रचार से? अधिप्रचार से? या समझ बूझ से – यथार्थ की निष्पक्ष समीक्षा करते हुए उज्वल और ईमानदार भविष्य के व्यावहारिक सपने बुनता हुआ!