निराशावादी कफन चोर
काफी समय पहले की बात है। हम लिखने वाले अक्सर मिल बैठते थे – थोड़ा सुनने और थोड़ा सुनाने। कुछ लोग केवल सुनने भर के लिए भी आ जाते थे। ऐसी ही एक जमघट में किसी सुननेवाले ने मुझे टोका, “कभी कुछ अच्छा भी लिखते हो?”
यहाँ ‘अच्छा’ शब्द का अर्थ केवल शब्दों की कलात्मकता नहीं अपितु विषयवस्तु का सौन्दर्य भी था। मैं गुड़गाँव में खड़ा गुड़गाँव को कोस रहा था और मेरी ‘नकारात्मकता’ कुछ गुरुग्राम वासियों को रास नहीं आई। मैं पूछना तो चाहता था कि रखा ही क्या है इस शहर में, मगर चुप रहा। मुझे नहीं लगता कि हमारा समाज नकारात्मकता के आशावाद को समझने के लिए अभी तैयार है। सच्ची नकारात्मकता का आलिंगन सकरात्मकता की चाह रखता है और समाज है कि बदलना ही नहीं चाहता।
पर प्रश्न तो प्रश्न ही हैं। और हर प्रश्न जवाब माँगता है। क्योंकि कविता पर किए गए सवाल का सबसे अच्छा जवाब काव्यात्मक ही हो सकता है इसलिए कुछ शब्दों को भून कर उसी दिन यह कविता पकाई थी पर परोस अब रहा हूँ। आशा है आपको इसका स्वाद पसंद आएगा।
अपनी सभी कविताओं, कहानियों और लेखों के लिए खुद ही चित्र बनाता हूँ पर इस बार आर्टिफ़िशल इन्टेलिजेन्स (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) की मदद से बनाया गया चित्र चस्पा रहा हूँ ताकि नकारात्मकता बनी रहे।
निराशावादी कफन चोर
हाँ! कटु बोलता हूँ,
नकारात्मक सोचता हूँ,
खम्बे की अच्छाई छोड़,
बुराई ही नोचता हूँ।लोग कहते हैं – करता नहीं कुछ,
केवल बोलता है,
उबकाई निराशा की करने बस
अपना मुँह खोलता है;तुम्हीं बताओ, मैं करूँ और क्या
इस निर्जीवता के गाँव में,
आलोकित दिन के अँधियारे में,
सूखे पेड़ों की छाँव में;क्या करूँ? निरुद्देश्य हूँ!
आराम ख़ोर हूँ मैं;
दुर्व्यवस्था की लाशों का
कफ़न चोर हूँ मैं!
आत्मावलोकन, निश्चय ही संभावनाशील। चित्र भी।
बहुत बढ़िया