मेरा ईश्वर
सोशल मीडिया पर एक मज़ेदार उद्धरण पढ़ा – अगर दुनिया में 300 धर्म हैं तो आस्तिक उनमें से 299 को नहीं मानता और नास्तिक 300 को। बस इतना ही सा फर्क है दोनों के बीच। पर कई लोग 299 और 300 के बीच झूलते रहते हैं।
मैं भी खुद को अमूमन वहीं झूलता हुआ सा पाता हूँ। समझ नहीं आता किधर क्यों जाऊँ। जीवन तो इस संशय के साथ भी आराम से कट जाएगा पर परेशानी अंत की है। आस्तिक जानता है कि उसे स्वर्ग या नर्क मिलेगा। नास्तिक जानता है वह हमेशा के लिए मिट्टी में समा जाएगा – दी एण्ड!
पर 299.5 वाला कहाँ जाएगा? कुछ ऐसे ही अंतरद्वन्द को शब्दों में पिरोती है यह कविता।
मेरा ईश्वर
ना कोई तप, ना कोई जप,
मेरा मानस – मेरा ईश्वर !
मेरी गति, मेरी मति,
मेरी मंशा – मेरा ईश्वर !कर्म वर्णन मेरे धर्म का,
मेरा अस्तित्व – मेरा ईश्वर !
कहीं कोई दिव्य ऊर्जा नहीं,
मेरा अंधकार – मेरा ईश्वर !
दूसरी शादी एक हिला देने वाली यथार्थ फैंटेसी है। एक खूबसूरत क्रिएशन। इसे ‘मेरा ईश्वर’ की पूर्व-पीठिका के रूप में देखा जाय या उसका परिशिष्ट? मुझे लगता है कविता आपकी विधा नहीं है।
‘मेरा ईश्वर’ और ‘दूसरी शादी’ अलग अलग समय और संदर्भ में लिखी गई हैं। इनका दोनों का कोई आपसी रिश्ता नहीं है, सिवाय मेरे।