फैमिली ट्री

स्कूल बस में हर रोज किसी न किसी अभिभावक की बस ड्यूटी लगती है। दिन की ड्यूटी अमूमन शिक्षक निभाते हैं क्योंकि अधिकाँश माँ बाप नौकरी पेशा हैं। हर महीने के पहले सोमवार को सुधीर की बारी आती है।

दरवाजे से सटी सीट पर बैठा सुधीर सोच रहा था की अगले महीने से क्या होगा? तलाक की कार्यवाही लगभग पूरी हो चुकी थी और पूर्णिमा के शर्तनुसार उसने दूसरे शहर में नौकरी ढूंढ ली थी। वो बच्चों और इस शहर को छोड़ कर जाना तो नहीं चाहता था पर पूर्णिमा इस बात पर अडिग थी कि सुधीर का शहर में रहना बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहेगा। तलाक का मसला अदालत में लंबा न खींचे इसलिए उसे पूर्णिमा की शर्त माननी पड़ी।

स्कूल बस के पहले स्टॉप पर प्रणव बस में चढ़ा और सुधीर की बगल वाली सीट की ओर इशारा करते हुए बोला, “अंकल, यहाँ बैठ जाऊँ?”

“हाँ हाँ, बेटा! खिड़की वाली सीट पर बैठोगे?”, कहते हुए सुधीर बिना उत्तर का इंतज़ार किए खिसक गया। प्रणव बैठा ही था कि सुधीर, बस यूँ ही, पूछ बैठा, “बेटा, आपके पापा की ड्यूटी कब लगती है?”

“मेरे पापा तो भगवान से मिलने चले गए हैं ना!”, प्रवण बोला। सुधीर सकपका गया। उसके पास बात आगे बढ़ाने के लिए शब्द नहीं थे। उसे यूँ देख प्रणव भी सकुचा सा गया और हाथ में पकड़े कागजों के टुकड़ों के किनारों को अपनी नाजुक उँगलियों से मरोड़ने लगा।

“वो क्या है बेटा, आपके हाथ में?”, सुधीर ने, फिर, यूँ ही पूछ लिया।

प्रणव के हाथ में दो पासपोर्ट साइज़ के फोटो थे। उन्हें सुधीर को दिखाते हुआ बोला, “पापा मम्मी की फोटो हैं। आज हमें क्लास में फॅमिली ट्री बनानी है।”

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