सत्येन्द्र – वृतान्त 3

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***

कार के हॉर्न की आवाज ने स्नेहलता के विचारों का क्रम तोड़ दिया। घर सामने ही था पर किसी ने रास्ते पर मोटरसाइकिल खड़ी कर रखी थी जिसके कारण आगे जाना संभव नहीं था। प्रीति मोटरसाइकिल वाले को कोस रही थी, “ये साला शहर कभी नहीं सुधरेगा! सड़क सबके बाप की है।”

“छोड़ो ना प्रीति। तुम बैक कर लो। मैं पैदल चली जाऊँगी।”

“अरे, ऐसे कैसे? मैं तो सोच रही थी साथ चाय पियेंगे।”

“मैं ठीक हूँ प्रीति। तुम मेरी चिंता मत करो और घर जाओ। तुम्हारा बेटा इंतज़ार कर रहा होगा।”

“पक्का ना? तुम चाहो तो मैं रुक जाती हूँ। तुम्हें यूँ अकेला छोड़ना अच्छा नहीं लग रहा।”

“सच कह रही हूँ यार। मैं ठीक हूँ। तुम चलो। जल्दी ही मिलते हैं।”, यह कहती हुई स्नेहलता कार से उतरने लगी। वह कार का दरवाज़ा बंद कर ही रही थी की चिन्तित प्रीति फिर बोली, “पक्का ना? सीरियसली, मैं रुक सकती हूँ! ऐसी कोई प्रॉब्लम नहीं है मुझे। देव घर पर ही है। वो संभाल लेगा।”

“सच कह रही हूँ प्रीति। अगर जरुरत होती तो तुम्हें हक़ से रोक लेती। अभी तुम चलो। बाय!”

बाय कहते ही स्नेहलता तेज कदमों से अपने घर की ओर चल दी। प्रीति थोड़ी देर रुकी और फिर गाड़ी पीछे करने लगी। स्नेहलता ने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा। वह तो इसी उधेड़बुन में खोई थी कि उसका सत्येन्द्र से मिले बगैर घर चले आना सही था या गलत। वैसे सत्येन्द्र ने भी तो एक बार उसकी ओर नहीं देखा। इन्हीं सब खयालों में उलझी वह पहली मंजिल के अपने सुनसान फ्लैट के भीतर पहुँच गयी। हाथ में पानी की बोतल ले कर खिड़की के पास खड़ी हुई तो देखा पड़ोसी उसे देख रहे हैं। उसे पता था की उन सबको पता है की सत्येन्द्र बलात्कारी घोषित हो चुका है। उसे समझ नहीं आ रहा था की वे उसे देख रहे हैं या घूर रहे हैं। वहाँ यूँ खड़ा रहना मुश्किल होने लगा था इसलिए वह उन्हें देख कर होले से मुस्कुरा दी और पीछे हो गई।

खिड़की के पास पड़ी कुर्सी में बैठ स्नेहलता उन उड़ते परिंदों को ताकने लगी जो दिल्ली की मुक्त पर जहरीली हवा में उड़ान भर रहे थे। खिड़की के निचले छोर से एक कँटीली टहनी पर खिले दो फूल स्नेहलता को निहार रहे थे। निराश निगाहों से वह उन फूलों को तब तक ताकती रही जब तक सूरज छिप नहीं गया। कमरा अंधकार में डूबने लगा पर उसने रौशनी जलाने की कोई कोशिश नहीं की। अब तक वह बस एक बार ही अपनी कुर्सी से उठी थी, पानी की एक और बोतल लाने के लिए।

स्नेहलता काफी देर से टेबल में पड़े अपने फोन तो ताक रही थी। वह पूरे शाम नहीं बजा था। कोई फोन करके उसे कहता भी तो क्या? फिर ना जाने क्या सोच कर उसने फोन उठाया और काँपते हाथों से एक नंबर डायल किया – मेनका का फोन नंबर! काफी देर तक घंटी बजती रही पर मेनका ने फोन नहीं उठाया। दो तीन मिनट बाद स्नेहलता ने फिर मेनका का नंबर घुमाया। इस बार, छह सात बार घंटी बजने के बाद मेनका ने फोन उठा लिया पर वह कुछ नहीं बोली। कुछ देर तक दोनों चुप रहे और फिर चुप्पी तोड़ती हुए स्नेहलता बोली, “मेनका?”

“हाँ, दी!”

“तुमसे मिलना है!”

“क्यों?”

“पता नहीं? बस यूँ ही शायद। अभी भी दी कहती हो तो उसी नाते ही मिल लो!”

मेनका थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, “कहाँ?”

“जहाँ तुम कहो!”

“कल अलंकार के घर में, जब वह ऑफिस चला जाएगा।”

“ठीक है। दस बजे तक आ जाऊँगी।”

“ठीक है दी!”

बात खत्म होने पर भी स्नेहलता बहुत देर तक कान से फोन सटाए बैठी रही। उसकी आँखों से आँसुओं की एक हल्की धार बह रही थी। यूँ बैठे बैठे ना जाने कब उसी आँख लग गई। जब उठी तो सुबह के 9 बज चुके थे। वह हड़बड़ताते हुए तैयार हुई और ठीक दस बजे अलंकार के घर पहुँच गई। वहाँ मेनका के साथ अलंकार भी मौजूद था। उसे देख स्नेहलता बोली, “आज ऑफिस नहीं जा रहे अलंकार?”

“जाना तो नहीं चाहता हूँ दी पर मेनका जिद कर रही है।”, थोड़ा खीजते हुए अलंकार बोला।

“रुकना चाहते हो तो रुक जाओ। तुम्हारा यहाँ रहना भी अच्छा रहेगा।”

इस पर मेनका बोली, “प्लीज़ ऑफिस चले जाओ अलंकार। मेरी चिन्ता मत करो। मैं ठीक हूँ।”

अलंकार कुछ नहीं बोला। उसने अपना बैग उठाया और घर से बाहर निकल गया। दरवाज़ा बन्द कर मेनका स्नेहलता के पास बैठते हुए बोली, “चाय चलेगी दी?”

“अरे नहीं! थोड़ी देर बाद पी लेंगे।”, कह कर स्नेहलता चुप हो गई। थोड़ी देर तक कमरे में यूँ ही चुप्पी छाई रही। स्नेहलता की समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे और कहाँ से शुरू करे। मेनका भी कभी स्नेहलता को देखती तो कभी खिड़की से बाहर। आखिर चुप्पी तोड़ते हुए स्नेहलता अचानक बोल पड़ी, “मैं तुम्हारा दुःख समझ सकती हूँ मेनका।”

“मैं शायद जानती हूँ दी। पर आज से पहले आपने कभी मुझसे मिलने की कोशिश क्यों नहीं की?”

“शायद तुम मेरी दुविधा समझ सकती हो।”

“समझती तो हूँ दी पर मुझे नहीं लगता था की आप इतनी कमज़ोर पड़ जाओगी।”

“समय और रिश्ते कई बार हमें बहुत कमज़ोर कर देते हैं मेनका!”

“वह तो है दी, पर आज मिलने का मन क्यों बना लिया आपने?”

“मुद्दा तो सत्येन्द्र ही है मेनका।”

“बताईए, मैं क्या कर सकती हूँ?”

“मुझे सत्येन्द्र का पक्ष पता है पर तुम्हारा नहीं। वकीलों ने जो भी दलीलें दी हों अदालत में, वह मायने नहीं रखती। मैं तुमसे तुम्हारा पक्ष सुनना चाहती हूँ!”

“मैं अपना पक्ष भूल जाना चाहती हूँ दी और आप…”

“प्लीज़… यह मेरे लिए जरुरी है। जानती हूँ कि बातें दुहराना तुम्हें दुखी करेगा पर आज भी तुम मुझे दी कहती हो सो उसी रिश्ते ने नाते अपनी इस दी तो अपना पक्ष बता दो प्लीज।”

“सत्येन्द्रजी क्या कहते हैं?”

“वो कहता है – ग़लतफ़हमी हो गई थी।”

“ग़लतफ़हमी… इतने बुद्धिमान व्यक्ति को गलतफहमी?”

“कटाक्ष करना तुम्हारा हक है मेनका। तुम्हारी भावनाओं की मैं इज्ज़त करती हूँ। पर प्लीज़, एक बार अपना सच बता दो मुझे!”

पता नहीं स्नेहलता सत्य की खोज में आई है या सत्येन्द्र के। वह अब उसका पक्ष क्यों सुनना चाहती है? ऐसे कई अन्य सवालों के जाल में उलझी मेनका समझ नहीं पा रही थी की वह क्या करे। फिर उसने सोचा कि वह क्यों किसी और की मंशा के कारण अपना मन भारी करे। खोने के लिए अब उसके पास बचा ही क्या है। अगर स्नेहलता सच में उसका पक्ष जानना चाहती है तो उसे अपनी कहानी सुनानी ही चाहिए।

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वृतान्त 4

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