टोकरी की सीमा – वृतान्त 2
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मुझे आज भी वह दिन ऐसे याद है मानो कल की बात हो। बाजार कॉलेज से दूर था और कॉलेज की बस हर शनिवार बाजार निकलती थी। हम, जो बड़े घरों से नहीं थे, हर हफ्ते की जगह दो या तीन हफ्ते बाद बाजार जाते थे क्योंकि दो तीन हफ्तों बाद ही हम इतना पैसा बचा पाते कि बाजार जा कर कुछ मनपसंद खा खरीद सकें। मैं और सीमा हमेशा साथ साथ बाजार जाते थे क्योंकि हमारी बातें ही नहीं हमारे स्वाद भी एक से थे।
उस दिन बाजार से वापस आते हुए हम बस की आखिरी सीट पर बैठे थे। सैमेस्टर इम्तेहान पास ही थे इसलिए बस लगभग खाली थी। हमारे आगे की सीटों में कोई नहीं था इसलिए मुझे लगा की मौका अच्छा है।
“सीमा, एक बात कहनी थी।”
“बक!”
“कितनी बेरहमी से बात करती हो यार तुम।”
“एक तू ही तो जिसके साथ मैं खुद हो जाती हूँ। बोल ना, क्या कह रहा था?”
सीमा मेरी दोस्त थी। बहुत अच्छी दोस्त। पर फिर भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
“बोल ना यार!”
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ सीमा!”, कुछ पल की चुप्पी के बाद मैं अचानक बोल बैठा और बोलते ही दूसरी ओर की खिड़की के बाहर ताकने लगा। मैंने सोचा कि वो सकुचाएगी, शरमाएगी, और फिर मान जाएगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसके अपने दोनों हाथों से मेरा सिर पकड़ा और अपनी तरफ मोड़ते हुए बोली, “पागल हो गया है क्या? एक तू ही तो दोस्त है मेरा!”
“प्यार भी तो दोस्ती ही है।”
“नहीं रे। वो कुछ अलग होता है। तेरी समझ में अभी नहीं आएगा। जिसे तू प्यार समझ रहा है ना उसे इनफैचूएशन कहने हैं। तेरा दिल नहीं हार्मोन बोल रहे हैं।”
मुझे पता नहीं था की सीमा तो इतना सब पता है। मुझे यह भी नहीं पता था की वह इतना कुछ बोल सकती है। और यह तो कतई नहीं सोचा था कि वह मेरे प्यार को शारीरिक आकर्षण घोषित कर देगी। मैं तो सोचता था कि दोस्त और प्रेमी होना लगभग एक ही बात है।
“सच बोल रहा हूँ सीमा। बहुत सोच समझ कर बोला है मैंने यह सब। मुझे पता है की ये प्यार ही है।”
“तू रहने दे यार। कुछ दिन इंतज़ार कर फिर तुझे अपने आप समझ जाएगा।”
“मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं तुम्हारे हाँ के इंतज़ार में हमेशा खड़ा रहूँगा। पुराने खयालों वाला आदर्शवादी जो हूँ। मैं हवा में बातें नहीं करता।”
“प्रेम श्रेम के मामले में अच्छे अच्छे लोग गफलत कर देते हैं। तेरी तो अभी ठीक से मूँछें भी नहीं आईं हैं।”
मुझे उसकी आवाज में खीज सी महसूस हुई। मैं बात आगे बढ़ाना चाहता था। मुझे लगता था की बात आगे बड़ी तो आज पर्दा गिर ही जाएगा। पर वह समझदार थी। सभी कहते हैं की लड़कियाँ हमउम्र लड़कों से ज्यादा समझदार होती है। मैं यह बात इतनी बार सुन चुका था कि मानने भी लगा था।
“देख, वो कहावत है ना – पार्क यूअर थॉट, अपने प्रेम के इस उबाल को थोड़ा समय दे। तूफान है शायद। देर सवेर थम जाएगा।”
“नहीं थमेगा सीमा। बहुत सोच समझ कर ही बोलने की हिम्मत की। तू मुझे बेवकूफ समझती है क्या?”
“इस मामले मैं हाँ!” कहते हुए उसने बात खत्म कर दी। कुछ मिनटों का अजीब सन्नाटा रहा। बस की घर्घराने की आवाज में मुझे पता नहीं चल रहा था कि मेरा दिल किस गति से भाग रहा है। पर खिड़की से आती ठंडी हवा मुझे गर्म जरूर लग रही थी।
“देख सीमा, मैंने जो बोल दिया वो बोल दिया। मुझे लगता है मैं सच में तुझसे प्यार करने लगा हूँ। पर तुझे वापस प्यार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता इसलिए इंतज़ार करता रहूँगा। रोऊँगा नहीं। बस इंतज़ार करूँगा। इसलिए तुम्हें गिल्टी फ़ील होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। हम पहले की तरह दोस्त बने रहेंगे। ठीक है ना?”
“हाँ, बिल्कुल ठीक है। पर इंतज़ार मत कर। ये पढ़ने लिखने के दिन हैं। प्यार व्यार होता रहेगा बाद में। खाने तो रोटी हो और सिर पर छत तो बाकि सब आसान हो जाता है।”
“कभी कभी कितनी बेतुकी हो जाती हो तुम।”
“मैं हूँ ही बेतुकी। तभी तो तुझे झेल रही हूँ।”, कहते हुए वह जोर से हँस दी। उनकी हँसी एक पूर्णविराम थी जो उस समय मैं समझ ना सका। मैंने सोचा था कि फूल खिलेंगे पर आँधी आ गई। कोमल कोंपलें जमीन पर बिखरी पड़ी थी पर बीनने की ताकत नहीं थी मुझमें। वह मुझे देख कर मुस्कुरा दी। मुझे भी वापस मुस्कुराना पड़ा।
“मैं सच में इंतज़ार करता रहूँगा।”, मैं बोला। मैं जताना चाहता था कि मुझे पता है प्यार क्या होता है। मैं बताना चाहता था की मेरा प्यार नादानी नहीं है। उसने मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। मेरे हाथ के ऊपर अपना हाथ रख कर हँस दी। वह मेरी दोस्त थी पर मैंने उसे कभी छुआ नहीं था। उसके स्पर्श से मुझे एक अद्भुत अनुभूति हुई। मुझे सुनहरा कल दिखने लगा। मैं कोंपलें बीनने लगा।
उस रात सुनहरे सपनों की गोद में मैं ऐसे सोया मानो कल मेरा नया जन्म होने वाला हो। पर अगले दिन से उसने मुझसे बात करना तो दूर, मेरी और देखना भी बन्द कर दिया। उसने ऐसा पहले कभी नहीं किया था। मुझे बहुत अटपटा सा लगा। मैं पूछना चाहता था पर पूछ ना सका। मुझे लगा की शायद वो लजा रही है। कच्ची उम्र के लड़के सच में बेहद बेवकूफ होते हैं।
हमारे बीच वह सन्नाटा आया और वहीं डट गया। मैं हर दिन सोचता रहा कि उसकी चुप्पी का कारण पूछूँगा पर पूछ नहीं सका। मुझे आज तक नहीं पता कि वो मेरा डर था या अहम। या शायद उसकी बेरुखी की ताकत ने मुझे निशब्द कर दिया था। कहते हैं कि प्रेम में बहुत ताकत होती है पर उतनी लाचारी मैंने पहले कभी अनुभव नहीं की थी। समय आगे खिसकता रहा। सन्नाटा बरकरार रहा।
यह सब पहले पहल तो अटपटा लगा पर बाद में सामान्य हो गया। दो साल की घनिष्ठ दोस्ती के बाद की यह निपट शांति हमारे बीते कल के यादों को मिटाने लगी। कभी कभी तो ऐसा लगता मानो हम कभी दोस्त थे ही नहीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह मुझसे नफरत करती है या समाज के डर की दूर रहने लगी है… या फिर इस बात से डरती है कि मुझसे बातें करती रही तो अंततः दिल दे ही बैठेगी। बाद बाद में मुझे यह भी लगने लगा कि मैं शायद उसके सपनों के आड़े आ गया था। कहाँ उसके उच्च कुलीन गोरे चमकते सपने और कहाँ एक कबायली छोरा जिसकी आँखें हमेशा आधी बंद रहती हैं। उसने शायद मान लिया था कि आधी आँखें शायद सपने भी आधा ही देखती हैं।
देखते ही देखते कॉलेज खत्म हो गया। वह हमारी दोस्ती की सीमा को लाँघ कर चली गई। पर फिर भी मैं अगले दस बरस तक उससे प्यार करता रहा। मैं निरा बेवकूफ सोचता था कि वह वापस जरूर आएगी। मुझे लगता था कि मेरा प्यार सच्चा है और सच्चे प्यार में बहुत ताकत होती है। मुझे लगता था कि उसे मेरा यह कहना याद होगा कि “तुम मुझे चाहो या ना चाहो, मैं तुम्हें चाहता रहूँगा। इसलिए इंतज़ार करूँगा।” डायलॉग फिल्मी सा था पर दिल से था इसलिए मुझे लगा कि वो भावुक हो जाएगी। पर उसे कुछ नहीं हुआ। मैंने अपने को समझाया कि वह अभी अपनी भावनाएँ दबाना चाहती है पर अंततः लौट कर जरूर आयेगी। इसलिए मैं अपना प्रेम दफनाने को तैयार नहीं था।
मैंने सच में इंतज़ार किया। मेरे पास कुछ और करने को था भी नहीं। दोस्तों ने कई बार बताया कि फलां फलां मुझे चाहने लगी है। पर मुझे किसी और का प्यार दिखा ही नहीं। हाँ, दुख जरूर हुआ कि मैं भी वही कर रहा हूँ जो सीमा ने मेरे साथ किया था। जब ऐसा दो तीन बार हुआ तो मैं कमजोर पड़ने लगा। बावजूद उसके अडिग रहा। मैंने अपने अमर प्रेम का गंगा विसर्जन तब किया जब मुझे पता लगा की यहाँ मैं इंतज़ार कर रहा हूँ और वहाँ सीमा आठ बरस पहले ही कुंवारेपन की सीमा लाँघ कर किसी ऋषि के साथ वैवाहिक सुख भोग रही है। यह सब जानने के बाद मैं कुछ दिनों तक बहुत व्यथित रहा, मजनूं सा दिखने लगा, रांझे के से ख्याल मेरे दिमाग में आने लगे… पर अंततः पृथ्वी, पवन, पानी, पिंड और पैसे की सच्चाई को स्वीकारते हुए मैंने स्वयं को जीवन की इस अन्धाधुंध दौड़ में समर्पित कर दिया और सीमाहीन हो गया।
सीमा भी रुकी नहीं। वह अपने पति के साथ देश की सीमा लाँघ कर ऐसी जगह पहुँच गई जहाँ सबको बड़ा, बहुत बड़ा, बनने का समान अवसर मिलता है। कहते हैं वहाँ सपने मरते नहीं हैं क्योंकि अप्रत्याशित लाभ टकटकी लगाये सबकी राह देखता है। एक ऐसा देश जो सबसे अधिक कोला भी देता है और सबसे अधिक गोला भी। एक न्यायप्रिय देश जो न्याय के लिए अन्याय की किसी भी सीमा को पार कर सकता है।
हिंदुस्तान में दीवारें सड़क के किनारे होती हैं पर अमरीका में एक सड़क है जिसका नाम ही दीवार है – वाल स्ट्रीट – यानि दीवार वाली सड़क! वह अमरीका ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सबसे महत्वपूर्ण दीवार है। कहते हैं कि जो उस दीवार के ऊपर चढ़ पाता हैं उसे सारी दुनिया नीचे दिखाई देती है! इस दीवार पर, और उसके आसपास कई लोग रहते हैं और दीवार की निकटता का लाभ उठा कर धन संचित करते हैं। और मेरी सीमा भी इसी दीवार को फतह करने की कोशिश करने लगी – अपने ऋषि के साथ!
सुना कि वे दोनों वहाँ दो ही चीज ले कर गए थे। एक बड़ी अटैची जिसमें कपड़े भरे थे क्योंकि भारत में कपड़े बहुत सस्ते मिलते हैं। और एक बड़ी सी खाली टोकरी। मुझे पता लगा कि ऋषि कहता था, “हम यहाँ केवल इस टोकरी को भरने आए हैं और जिस दिन यह भर जायेगी हम हिंदुस्तान वापस चले जायेंगे।”
पागल आदमी! उसके पता ही नहीं था की समय का घड़ा भर जाता है पर वह टोकरी नहीं भरती। कई बार लगता जरूर है कि वह लगभग भर सी गई है पर ‘पूरी’ कभी नहीं भरती। सीमा और ऋषि की टोकरी भी हर समय पूरी से थोड़ी कम भरी रहती थी।
इसी बीच सीमा से एक गलती हो गई। वह गर्भवती हो गई। मैं ‘गलती’ शब्द का प्रयोग इस लिए नहीं कर रहा कि होने वाले बच्चे का पापा ऋषि नहीं था। मुझे क्या पता! मैं तो ‘गलती’ शब्द का प्रयोग इस कारण कर रहा हूँ कि सीमा मातृत्व के लिए मानसिक व आर्थिक रूप से तैयार नहीं थी।
यह सब बातें उसकी एक दोस्त ने मुझे बताईं। क्योंकि कॉलेज गप्प से चलता है इसलिए कॉलेज के बाद भी गप्प चलती रहती हैं। सीमा की खबरें मुझे इसलिए भी रहती थी क्योंकि कमीने दोस्त मेरे चेहरे को निराश देखना चाहते थे। उन्हें पता नहीं था कि दुनिया के कुछ तौर तरीके हम भी सीख चुके थे।
खैर, सीमा ने ईश्वर कि इच्छा मान कर माँ बनना खुले मन से स्वीकार कर लिया और होने वाले बच्चे के लिए भी सपने बुनने लगी। सपने तो सीमा अपने मन में बुन रही थी पर बाहर एक बड़ी विचित्र सी बात हो रही थी। जब जब सीमा मातृत्व के सपने बुनती उसकी टोकरी का आकार और बढ़ जाता। सीमा के पेट की तरह वह टोकरी भी दिन दुगनी रात चौगुनी फूलने लगी। लगभग भरी सी दिखने वाली टोकरी जल्द ही आधी भरी लगने लगी। इस बात ने ऋषि को भी चिंता में डाल दिया यद्यपि उसने यह भ्रम पाल रखा था की बच्चे के जन्म के बाद जब सीमा का पेट अंदर जायेगा तब टोकरी का आकार भी छोटा हो जायेगा। उसे तो झटका तब लगा जब बच्चा बाहर आया, सीमा का पेट अंदर गया पर टोकरी थोड़ी और बड़ी हो गई।
इधर बच्चा बड़ा होने लगा उधर टोकरी। ऋषि ने टोकरी भरने के लिए बड़ी बड़ी नौकरियाँ की पर वह फिर भी नहीं भरी। फिर उसने सिलिकॉन वैली नामक जगह में जा कर पटाखा फोड़ा। विस्फोट बड़ा था जिसने हर चीज को छोटा कर दिया पर टोकरी छोटी होने की जगह और बड़ी हो गई।
कई सालों तक मुझे इन विस्फोटों और टोकरी की खबर मिलती रही। इसी बीच मैंने भी एक टोकरी खरीद ली। उसे भरने के लिए मैं भी विस्फोट करने की कोशिश करने लगा। पर दिल्ली में आवाज़ें उतनी नहीं गूँजती जितनी सिलिकॉन वैली में। मैंने दिल्ली छोड़ एक छोटे शहर में चला आया क्योंकि शराब में मदहोश एक दोस्त ने बताया कि “बड़े तालाब में छोटी मछली होने से अच्छा होता है एक छोटे तालाब में बड़ी मछली बन कर रहना।” वह तो यह बकवास कर भूल गया पर मुझे याद रहा इसलिए मैं छोटे तालाब में चला गया। मुझे क्या मालूम था की टोकरी का आकार तालाब नहीं मछलियाँ ही तय करतीं हैं।
“हैलो, हैलो… भाईसाहब आप बतायेंगे प्लीज की क्या हुआ मम्मी को? हैलो! हैलो!”
मुझे अचानक याद आया कि मैं फोन पर हूँ। कि कोई परेशान है अपने परिजनों के लिए। कि किसी से पिताजी की आज आखिरी रात हो सकती है। इसलिए बिना एक पल गवाएँ मैंने सारी परिस्थिति बयान कर दी। फोन के दूसरे छोर पर सिसकियाँ थी। मुझे लगा मैं भीग जाऊँगा पर मैंने अपने को भीगने नहीं दिया।
“जी, मैं दिल्ली में नहीं रहता। काम से आया था। आपकी बिल्डिंग में दोस्त रहता है मेरा। सुबह आपकी माताजी मिल गई। आपके पिताजी के लिए चिंतित थीं इसलिए उन्हें अस्पताल के आया। डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए कनसेंट चाहिए।”
“वो रुक नहीं सकते क्या?”
“नहीं! डॉक्टर कह रहे थे कि बहुत रिस्क है। तुरन्त कुछ करना होगा।”
“आप कनसेंट दे देंगे प्लीज?”
“मैं? किस हक से? आपकी माताजी से साइन करा दूँ?”
“नहीं ईजा को मत बताना प्लीज। कनसेंट ऑनलाइन हो सकता है क्या? अगर हो सकता है तो करवा देंगे प्लीज? मैं कल देर रात या परसों सुबह तक पहुँच ही जाऊँगी।”
“जी, पता करता हूँ। शायद हो जाएगा। मुझे भी आज शाम निकलना है। आप अपने किसी रिश्तेदार को बुलवा लीजिए प्लीज। आपकी माताजी परेशान हैं।”
“जी मैं तो किसी रिश्तेदार के टच में नहीं हूँ। देखती हूँ। शायद मेरे हज़्बन्ड की फॅमिली से कोई आ जाएगा। वो लोग रुड़की मैं रहते हैं। एक्चुअल्ली इनकी मम्मी पेरेलाईज्ड हैं इसलिए पापाजी नहीं आ सकते। इनके भाई जर्मनी रहते में है और बहिन कोचिन में। मैं करती हूँ कुछ। आप कब तक रुक पायेंगे?”
“जी मैं जिस मीटिंग के लिए आया था वह आज नहीं हो पाई क्योंकि हॉस्पिटल आ गया था। कल सुबह उसे निपटा कर वापस चला जाऊँगा।”
वह मुझे रोकना चाहती थी पर समझ नहीं पा रही थी कि किसी हक से रोके। मैं रुकना नहीं चाहता था इसलिए अपना पूरा नाम नहीं बताया। अगर वह मेरी आवाज पहचान जाती तो मुझे रुकना पड़ता पर उसने नहीं पहचाना। नहीं पहचाना जाना मुझे बुरा भी नहीं लगा, शायद! मैं उसकी ईजा का दुख तो समझ रहा था पर उसका दुख समझने की कोशिश नहीं करना चाहता था। अगर जान बूझ कर रुक गया तो अपनी अनंत को क्या बोलता – कि सीमा ने रोक लिया। वह भी तब जब वह तहेदिल से अपने जन्मदिन पर मेरा इंतज़ार कर रही है। उसे शक भी तो है की मैं दिल्ली उसके लिए गिफ्ट लेने आया हूँ।
अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही निपटाने के बाद मैं जाना चाहता था पर ऑपरेशन अभी ही होना था और आमा अकेली थी। सोचा आज रात रुक जाता हूँ और आमा का सिम भी ठीक करा देता हूँ। बुड्ढेजी को कुछ हो गया तो बेचारी अकेली क्या करेगी। फोन चल गया तो कम से कम रो तो लेगी। सुबह तक कोई ना कोई रिश्तेदार आ ही जाएगा। सहारा देने या बचाने भले ही कोई ना आए पर मौत हमें हिला ही देती हैं।
ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठी आमा एकटक दरवाजा ताक रही थी और मैं आँखें बंद कर समझ रहा था कि टोकरी कहने को तो निजी होती है पर असल में निजी नहीं होती। बहुत कुछ जुड़ा होता है हर टोकरी से। ऐसे में टोकरी की सीमा कौन तय करे?
टोकरी की सीमा के दोनों वृतांत पढ़े। दिल की कहानी है, साथ ही उसे भी सीमा ने जकड़ा हुआ है। आपकी बाकी कहानियों की तरह यह भी तेज भाग रही है और संयोग ही उसे दौड़ा रहे हैं। बाकी तो स्थितियों को पकड़ने में आपको जबरदस्त महारत हासिल है।
जी धन्यवाद। गति सीमा निर्धारित करने की कोशिश जरूर करूँगा।
बहुत खूब भाई, दिल को छूती और जीवन की यथार्थता को दिखाती अत्यंत सुंदर रचना।जीवन जहां से शुरू होता आखिर भी उन्हीं के आसपास होती गुजरती है,।जीवन सीमाओं को तय करते हुए भी अनंतता में समाहित होने की समझ व परिपक्वता हमें आ जाती है। एक और सुंदर रचना की प्रतिक्षा रहेगी।
धन्यवाद दी!