टोकरी की सीमा – वृतान्त 1

आज फिर सीमा की याद आ गई। यूँ तो सीमा की कोई सीमा नहीं होती पर जिसकी सीमा होती है उसकी भी सीमा नहीं होती। बात थोड़ी टेढ़ी और गैरजरुरी सी लगती है पर इसे संभाल कर रखियेगा – आगे काम आएगी!

प्यार की, सपनों की, विचारों की, सत्य की… इन सबकी कोई सीमा नहीं होती। ठीक वैसे ही जैसे घृणा, डर, व्यभिचार, लालच, झूठ, आदि की भी कोई सीमा नहीं होती। असल में तो दिन और रात, या यूँ कहें कि रौशनी और अंधकार की भी कोई सीमा नहीं होती। हर उस जगह जहाँ दो विपरीत तत्व मिलते से प्रतीत होते हैं, वहाँ अक्सर कई अन्य तत्व मौजूद होते हैं जिन्हें हम अमूमन अनदेखा कर देते हैं। दरअसल ये वे तत्व हैं जो किसी भी सीमा को सीमाहीन बनाते हैं। ये तत्व नपुंसक नहीं होते पर इनके लिंग का सही आंकलन करने की अभी हम में क्षमता नहीं है। वक्तव्य दर्शनशास्त्र सा जरुर लगता है पर है नहीं। यह तो एक सीधा सरल मूल सत्य हैं जिससे अधिकांश लोग सहमत नहीं होते क्योंकि सीमाएँ बाँधे बिना व्यावहारिक जीवन चला पाना कठिन है।

असल जिंदगी की बात करें तो हर चीज की सीमा होती है। मेरी भी एक सीमा थी!

जब मेरी सीमा टूटी तो मैं दिल्ली से हताश हो गया। मुझे लगा मैं टूट जाऊँगा। पर कभी कभी निराशा भी यकायक आशा के दरवाजे खोल देती है। मेरी निराशा ने मुझे भरोसा दिलाया की अब आशा करना बेकार है इसलिए बड़े शहर की उलझी जिंदगी समेट मैं उत्तराखंड के एक छोटे शहर चला आया। मुझे समय चाहिए था ताकि मैं अपनी उलझने सुलझा सकूँ। पर शायद उलझनें सुलझना नहीं चाहती। मैंने लाख कोशिशें की पर वे उलझीं रहीं। मैंने फिर भी हार नहीं मानी क्योंकि कहने करने के लिए मेरे पास और कुछ नहीं था।

समय धीमी गति से बढ़ रहा था। कुछ टहनियों में नए पत्ते उगने लगे। इस संभावना से मैं खुश रहने लगा कि शायद फूल भी खिलेंगे। कोशिश करने लगा की अपने परिवार को कुछ सुख दे सकूँ। उनके कुछ काम आ सकूँ। इसी चलने बढ़ने के सिलसिले में एक दिन किसी काम से दिल्ली जाना हुआ। दिल्ली मुझे पसंद नहीं पर दिल्ली सबको पसंद करती है इसलिए बुलाती रहती है। फेफड़े जल जाते हैं पर जाना पड़ता है क्योंकि दरबार को अनदेखा नहीं जाता।

कॉलेज में एक खास दोस्त था जिससे सालों से मिलना नहीं हो पा रहा था इसलिए इस बार बहिन के घर ना जा उसके घर चला गया। लगभग पंद्रह साल बाद मिल रहे थे हम। शाम को उसके घर पहुँचा तो उसने गले लगाया और ठंडी बियर परोसी। उसे याद था कि मैं शराब नहीं पीता। हमनें दो बोतलें ही गटकी थी कि वो बोला, “चल पान खा कर आते हैं।” मैं चल दिया। मुझे क्या पता था कि पान एक बहाना है बीवी से छिप कर सिगरेट पीने और मेरी घेराबंदी करने का। पान की दुकान पर उसने सिगरेट जलायी और बोला, “ओए, तुझे तेरी सीमा मिली?”

“सीमा?”

“अबे वही, जिसे तू लाँघने की कोशिश कर रहा था!”, कहते हुए उसने एक गंदी सी मुस्कान दी मानों कोई वयस्क फिल्म देख कर मस्त हो रहा हो। मैं उस बेतुके सवाल का जवाब नहीं देना चाहता था पर वो उत्तर के इंतज़ार में मगन हो रहा था। मुझे बियर की जोरदार तलब लगी क्योंकि चढ़ाए बिना मुझसे शाब्दिक और शारीरिक हिंसा नहीं हो पाती।

“पागल है क्या? मेरी सीमा तो कभी की निपट गई। अब तो मैं अनंत का हो चुका हूँ।”

मेरी बात सुन उसने दुख जताने का नाटक किया। मुझे इसलिए पता चल गया क्योंकि उसकी आखें खुश थीं। डरपोक लड़के अक्सर खुद को नहीं बता पाते की उन्हें भी सपने आते हैं इसलिए औरों के सपने जीने लगते हैं। मैं उससे कुछ नहीं बोला पर मुझे अपनी सीमा याद आ गई। वह बात को और कुरेदता इससे पहले उसकी बीवी का फोन आ गया।

“चल, चलते हैं। तेरी भाभी बुला रही है।”

उसके मुँह से भाभी शब्द सुन कर अजीब सा लगा। कॉलेज के कुछ किस्से याद आ गए पर अपनी उम्र के बोझ तले मैंने उन्हें दबा दिया। घर पहुँचे तो खाना परोसा जा चुका था। अब और बियर न पीये जाने के इस ऐलान के आगे नतमस्तक होते हुए हम यहाँ वहाँ की हाँकते हुए खाना खाने लगे। क्योंकि मुझे तारीफ करनी नहीं आती इसलिए मैं खाने के बारे में कुछ नहीं बोला। भाभीजी, यानि वन्दनाजी, भी बिना कुछ बोले सोने चली गई। पर हम दोनों तब तक गपियाते रहे जब तक बातें खत्म नहीं हुईं।

दोस्त को अगले रोज दिन भर के टूर पर कहीं जाना था इसलिए वह जल्दी निकल गया। वन्दनाजी भी नौ बजे अपने ऑफिस निकल गई। मेरी मीटिंग बारह बजे की थी इसलिए मैं काफी देर बिस्तर पर लेटा अलसाता रहा पर दिल्ली की हवा और आवाज़ें अलसाने नहीं दे रही थी। सो तैयार हो कर घर से बाहर निकल आया और बिल्डिंग के अहाते में टहलने लगा।

यूँ ही टहलते टहलते मुझे अचानक लगा की कोई बहुत देर से मुझे घूर रहा है। पहली मंज़िल से। मैंने तिरछी नज़रों से देखा कि एक जोड़ी निराश बुजुर्ग आखें मुझे देख रहीं हैं। मैं ज्यादा देर तक अनदेखा करने की कोशिश ना कर सका। आखिर आखें मिला कर मैं मुस्कुरा दिया पर वह नहीं मुस्कुराईं। उन्होंने नजरें भी नहीं फिराई। बस एकटक देखती रहीं। मैं फिर मुस्कुराया पर वो सुनसान निगाहें तब भी कुछ नहीं बोलीं। मैंने देखा की उनके होंठ थोड़ा फड़फड़ा रहे थे मानो कुछ कहना चाहते हों। सामने ही सीढ़ी थी सो मैं ऊपर चढ़ गया। मेरे खिड़की के पास पहुँचते ही वे बोलीं, “बेटा, पहाड़ से हो?”


मैंने हामी भरी दी। मुझे लगा आमा को शायद अपने गाँव की नराई लग रही है।

“और आप?”

“हम अल्मोड़ा के हुए च्याला।”

“अल्मोड़ा में कहाँ? मैं भी अक्सर वहीं रहता हूँ।”

“ताकुला के।”

“जी, ताकुला गया हूँ मैं। अच्छी जगह है। आप यहाँ बच्चों के साथ रहते हो?”

“नहीं च्याला। मैं और बुड्ढेजी अकेले ही रहते हैं। यहाँ किसी को नहीं जानते। एक साल पहले बेटी ने यह घर खरीद कर हमें यहाँ बैठा दिया। बोली ताकुला आना जाना कठिन हो जाता है ईजा। तब से अकेले ही हैं यहाँ।”

कहानी घर घर की थी इसलिए मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। ऐसे अकेले लोग अब सभी जगह मिल जाते हैं, छोटे छोटे शहरों और गाँवों में भी। मैंने रात की बकबक से थका हुआ था इसलिए मुझमें किसी की व्यथा सुनने की ताकत नहीं थी। मैं खिसकने के बहाने खोज ही रहा था कि आमा बोल पड़ी, “इनको दो हफ्ते से लैट्रीन नहीं हुई है। खाना पीना भी एक हफ्ते से बंद है। अब तो बेहोश सा हो रहे हैं। बेटी का फोन भी नहीं मिल रहा और हम यहाँ किसी को नहीँ जानते। तुम हमें अस्पताल ले जा दोगे च्याला?”

बारह बजे की मीटिंग को तो मैं टाल सकता था पर उसकी वजह से आज शाम वापस निकलना नहीं हो पाएगा यह सोच कर अटपटा लग रहा था। एक बार एकांत में रहने की आदत लग जाए तो भीड़ काटने को दौड़ती है। मैं बहाना मार कर निकलना चाहता था पर आमा की आँखों से छलकते विश्वास ने मुँह बन्द कर दिया। दिल्ली क्या छोड़ी झूठ बोलने की आदत भी छूट सी गई थी। मेरे आखों के सामने लैट्रिन न कर पाने के कारण मर गए बुड्ढेजी की लाश पर अकेले बिलखती आमा की तस्वीर आ गई। तस्वीर मार्मिक थी। मैंने आमा को देखा। उनकी आँखें आस लगाए बैठी थी। मैं ना न कर सका।

शाम चार बजे तक सभी टेस्ट हो गए। आमा को पता नहीं था की बुड्ढेजी पैसे कहाँ रखते हैं या उनके डेबिट कार्ड का पिन क्या है इसलिए पैसे भी मुझे ही चुकाने पड़े। डॉक्टर को लगा की मैं उनकी निकम्मी औलाद हूँ इसलिए हड़काते हुए सा बोले, “गजब लोग हो। आदमी मर रहा है और आपको सुध लेने की फुरसत ही नहीं है। ऐसा क्या करते हो आप?”

मैं सफाई देता इससे पहले वे बोले, “आँतों का फुल ब्लॉकेज़ है। तुरन्त ऑपरेशन नहीं किया तो बचा नहीं पायेंगे।”

“डॉक्टर, दवाई दे कर कुछ नहीं हो सकता है?”

“उसके लिए पहले जागना था भाई। अब तो मामला संभल जाए वही बहुत बड़ी बात होगी। ब्लॉकेज़ की बायोप्सी भी करनी होगी।”

“बायोप्सी? मतलब कैंसर?”

“जी, कैंसर भी हो सकता है पर अभी कुछ साफ पता नहीं चल रहा। ऑपरेशन करके ही पता चलेगा। उम्र काफी है इसलिए ऑपरेशन में खतरा है पर हमारे पास इसके अलावा कोई ऑप्शन नहीं है। जल्दी से कन्सेंट फॉर्म भर दीजिए ताकि ऑपरेशन की तैयारी शुरू कर सकें।”

“पर…”

“पर क्या?”

“मैं उनका कुछ नहीं लगता। बीमार थे इसलिए ले आया।”

“तो उसको लाईए जो उनका कुछ लगता हो?”

“जी वो तो मैं नहीं जानता।”

“तो पता कीजिए या फिर किसी सरकारी अस्पताल चले जाईए!”, कहते हुए डॉक्टर साहब चले गए। मेरी समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। किसी तरह आमा से बात करने की हिम्मत जुटाई और पास पहुँचा। आमा बहुत आशा और आत्मीयता से मुझे देख रही थी।

उनके बगल में बैठते हुए मैंने पूछा, “आपके बच्चे कहाँ है?”

“बेटी है। विदेश में रहती है। पंद्रह दिन से फोन ही नहीं लग रहा।”

मैं एक अजीबोगरीब स्थिति में फँस गया था। किसी के रायते में दही बनने का मन तो नहीं था पर दिल किसी के मौत की जिम्मेदारी लेने को भी तैयार नहीं था। मैंने आमा से कहा, “फोन नंबर है? मैं कोशिश करता हूँ।”

आमा ने अपना फोन मुझे थमा दिया और बोली, “चेली करके नंबर है शायद। फोन तो हमेशा ये ही लगाते हैं। मुझे तो आता नहीं।”

फोन पर बार बार एक ही नंबर डायल हुआ था। चेली का। मैंने भी वही नंबर डायल कर दिया। घंटी नहीं बजी। दरअसल फोन ही नहीं चला। शायद फोन खराब हो गया था या फिर उसका सिम। आमा को इसके बारे में कुछ पता नहीं था। कहने लगी कि बेटी हफ्ते में एक बार जरूर फोन करती है पर इस बार दो हफ्ते गुजर गए।

मैंने अपने फोन से चेली का नंबर को डायल किया। नंबर अमरीका का था। वहाँ फोन करने का उपयुक्त समय तो नहीं था पर करना जरूरी था। पहली बार डायल किया को उत्तर नहीं मिला। दोबारा कोशिश की फिर भी किसी ने नहीं उठाया। तीसरी बार जब घंटी बजी को कोई बहुत खीजते हुए बोली, “हू इस दिस?”

“जी, मैं इंडिया से बोल रहा हूँ। आपकी माताजी ने नंबर दिया आपका।”

“क्या हुआ ईजा को? आप कौन हैं?”, वह हड़बड़ा गई। ईजा सुन कर लगा कि वह आवाज अपनी जड़ों को अभी भूली नहीं है। आवाज कुछ जानी पहचानी सी थी इसलिए भली लगी  हालांकि मैं गुस्से से भरा बैठा था।

“जी, मैं पड़ोस में आया था। आपके पिताजी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए अस्पताल ले आया।”, फिर डरते हुए बोला, “आपका शुभ नाम?”

“आई एम सीमा!”

सीमा सुनते ही मुझे अपनी सीमा याद आ गई। तभी कहूँ की यह आवाज इतनी जानी पहचानी सी क्यों है। सीमा! मेरी सहपाठी और पुरानी दोस्त। एक बहुत ही अच्छी दोस्त जिससे मुझे इश्क़ हो गया था।

***

वृतान्त 2 >

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2 Responses

  1. Manohar Pangtey says:

    Good story and written very well. But I hope it is real not imaginary.

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