सुदूर हिमालय का यह उत्पात

किन्नौर की वह खूबसूरत घाटी कभी कभार धमाकों की आवाज़ से गूँज उठती थी। कुछ रोज ये धमाके देर रात भी सुनाई दिए। कारण बेहद व्यथित करने वाला था। पर क्या किया जा सकता है? मानव कल्याण की कीमत तो चुकानी ही होगी!

बात कई वर्ष पुरानी है। हम पहली बार किन्नौर घाटी गए थे। स्पिति की ओर अग्रसर होने से पहले हमने सांगला में कुछ दिनों के लिए अपना डेरा जमाया। जब स्थानीय लोगों से इन धमाकों का श्रोत और कारण जानना चाहा तो पता चला की एक विद्युत परियोजना के तहत बुग्याल (मीडोज़) में टनल निर्माण का कार्य चल रहा है, जहाँ का पानी इस टनल के माध्यम से नीचे स्थित पावर स्टेशन की ओर भेजा जाएगा। हिमालय में ऐसी अनेक विद्युत परियोजनायें हैं।

बुरा लग रहा था यह सोच कर की सुदूर हिमालय के ये अद्भुत बुग्याल यूँ छलनी हो रहे हैं। सोचने लगा की ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी की हमें अपने बुग्यालों में ऐसा उत्पात मचाना पड़ रहा है। मसला यह भी था की अगर बुग्याल छलनी नहीं हुए तो फिर गाँव डूबेंगे, टिहरी की तरह। पर कुछ तो होना ही होगा। हमने अपनी जरूरतें ही कुछ ऐसी बना ली हैं।

सुदूर हिमालय का यह उत्पात

चाँदनी हरियाली से आलोकित
सुदूर हिमालय की घाटी,
घमकती नदी के आवारापन में
मीलों लिपटी ये वादी।

तब रात के इस सन्नाटे में
तीन धमाकों का होना,
अलटना पलटना थकी माँ का
और नन्हे बच्चे का रोना।

खिसकती मिट्टी, सिसकते पेड़,
और एक प्रवाह जिसे हम रहे हैं बाँध,
वातानुकूलित शांति की कीमत चुकाता
सुदूर हिमालय का यह उत्पात!

अक्सर सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि क्या महज सवाल उठाने से जवाब मिल सकते हैं? क्या अक्सर सवालों में ही जवाब निहित होते हैं? क्या इसीलिए हम या तो केवल सवाल उठाते हैं और जवाब नहीं ढूंढते, या फिर केवल जवाब देते हैं पर सवाल नहीं करते? सच क्या है? क्या वास्तव में हम कोई हल चाहते भी हैं?

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