सत्येन्द्र – वृतान्त 5
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अपनी बात कह कर मेनका चुप हो गई। सत्येन्द्र भी काफ़ी देर तक कुछ नहीं बोला। टीवी से निकलती धीमी आवाज़ पर उसने अपना ध्यान डालना चाहा पर सफल नहीं हो पाया। वह बार बार मेनका की ओर देख रहा था और मेनका बीयर पीते हुए खिड़की से बाहर सड़क की चकाचौंध में अपने को खोने की कोशिश कर रही थी।
आखिर बीस मिनट बाद उनकी नज़रें फिर मिली। मेनका से एक निराश सी मुस्कान दी। सत्येन्द्र बोला, “तुम्हारे मसले का हल खिड़की के बाहर नहीं है। सच से दूर भाग कर सच बदल नहीं जाएगा। वह भाईसाहब तो अब तक शादी वादी करके कहीं आराम फरमा रहे होंगे और तुम उसे आदमीयत का सबसे बड़ा उदाहरण मान कर आदमियों की सारी कौम को कटघरे में खड़े किए फिर रही हो। तुम्हें ऐसा क्यों लगता है की हर मर्द ऐसा ही होगा?”
“जानती हूँ की हर मर्द वैसा नहीं होगा पर अगर फिर से वैसा ही कोई मिल गया तो पूरी तरह से टूट जाऊँगी। अभी कम से कम जी तो रही हूँ। फिर जी भी नहीं पाऊँगी। इसीलिए अपने मनपसंद काम में सारी खुशी ढूंढ ली है मैंने। जो करना चाहती थी वही कर रही हूँ। हर औरत के साथ एक आदमी का होना जरुरी भी तो नहीं है।”
“बिलकुल जरुरी नहीं है। अकेले खुश रहना सम्भव है। पर तुम खुश कहाँ हो? जिसे तुम तुम्हारा चुनाव समझती हो वह असल में तुम्हारी मजबूरी है। तुम्हारा डर है।”
“हाँ, है! तो क्या करूँ? चाह कर भी भुला नहीं पाती हूँ उस हादसे को। ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो जबकी आठ बरस बीत चुके हैं।”
कमरे में एक बार फिर ख़ामोशी छा गई। थोड़ी देर बाद सत्येन्द्र ने कहा, “कभी उससे मिली नहीं? मिल कर दो चार गाली दे देती तो शायद मन हल्का हो जाता। या एक तमाचा ही मार देती।”
“उसको भी क्या दोष दूँ? हाँ तो मैंने ही की थी? उसने तो बस अपना किरदार निभाया। मुझे क्या मालूम था की आदमी ऐसे भी होते हैं?”
“देखो! तुम फिर आदमियों की पूरी कौम को कोसने लगी हो? क्या तुम्हें लगता है मैं भी ऐसा हूँ?”
“मुझे क्या पता? शायद नहीं! शायद हाँ! मुझे ना जाने क्यूँ लगता है की अगर आप भी मेरे आशिक होते तो वैसे ही होते। मैं जानती हूँ की यह मेरे ही मन का डर है पर क्या करूँ? यह डर साला साथ छोड़ने को तैयार ही नहीं। बहुत कोशिश की पर सब बेकार। इसलिए डर से ही इश्क कर लिया मैंने। तब से जिन्दगी आराम से कट रही है।”
“आराम से कट रही है या तुम घुट घुट कर जी रही हो?”
“अब आप जो चाहे सोच लो पर मुझे नहीं लड़ना इस डर से। जो होगा देखा जाएगा।”
सत्येन्द्र कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर की शान्ति के बाद मेनका ने सवाल किया, “अगर आप मेरी जगह होते तो क्या करते?”
“पता नहीं! पर कुछ करता जरूर। जो गलती मेरी नहीं है उसकी सजा कम से कम खुद को तो नहीं देता।”
“जरा मैं भी तो सुनूँ आपका हल!”
मेनका के इस सवाल ने सत्येन्द्र को गहरी सोच में डाल दिया। वह एकटक कमरे के एक कोने को ताकता रहा और सोचता रहा। मेनका फिर सड़क की चकाचौंध में उलझ गई। काफ़ी देर बाद सत्येन्द्र होले से बोला, “शायद मेरे पास भी कोई हल नहीं होता। पर अगर मेरे किसी नाटक या कहानी का पात्र इस मसले से जूझ रहा होता तो हल कर देता।”
“वो कैसे?”
“मुझे लगता है की मुद्दा किसी को अपने वश में करने का है। मैं अपने पात्र का संबंध किसी ऐसे व्यक्ति से जोड़ता जो शुरूआत में तो दरिंदे सा बर्ताव करता पर जब वह अपने साथी को वश में कर लेता तो एक सम्पूर्ण प्रेमी के रूप में परिवर्तित हो जाता। उसका स्पर्श इतना कोमल और इतना प्रेम भरा होता कि उसके साथी का डर धीरे धीरे पिघलने लगता। उनके चुम्बन में मिठास आ जाती। उनका शरीर यूँ आपस में लिपट जाता मानो किसी पेड़ के साथ एक नाजुक बेल। भावनाओं के दरिया में डूब कर उसका भयरूपी मैल उसके शरीर को हमेशा के लिए छोड़ देता। रात के उस आलिंगन के बाद एक नई सुबह होती। एक खुशनुमा नई सुबह!”
“आप सही मायने में लेखक हो। हर चीज का तार्किक हल है आपके पास।”, मेनका हँसते हुए बोली, “पर क्या आपको लगता है की आपके नाटकीय हल असल जिन्दगी में भी कारगर हो सकते हैं?”
ना जाने क्या सोच कर सत्येन्द्र बोल पड़ा, “आजमा लो!”
मेनका के चेहरे की हँसी अचानक गायब हो गई। वह कभी सत्येन्द्र को देखती तो कभी खिड़की से बाहर। फिर ना जाने क्यों वह उठी और सत्येन्द्र के बगल में जा बैठी। उसने अपना सिर सत्येन्द्र के कंधे पर रखा और उसके गले में अपनी बाहें डाल दी। सत्येन्द्र सकपका गया। उसकी समझ नहीं आ रहा था की क्या किया जाए। वह काफ़ी देर तक बिना हिले डूले बैठा रहा फिर धीरे धीरे मेनका का हाथ सहलाने लगा। उसके हाथ मेनका के कन्धों से होते हुए गालों तक पहुँच गए। उसके होंठ मेनका के होंठों की ओर बढ़ने लगे। मेनका अचानक सचेत हो गई। उसने अपने को सत्येन्द्र से दूर करना चाहा पर सत्येन्द्र की पकड़ मजबूत थी। “मुझे छोड़ो सत्येन्द्र”, कह कर उसने अपने को छुड़ाने की कोशिश करी पर तब तक सत्येन्द्र उसके होंठों पर अपने होंठ रख चुका था। मेनका ने अपने को छुड़ाने के लिए जितनी ताकत लगायी, सत्येन्द्र की पकड़ उतनी ही मजबूत होती गई। फिर सत्येन्द्र ने अचानक उसे उठा लिया और बिस्तर की ओर ले जाने लगा। मेनका अपने को छुड़ाने की कोशिश करती रही। सत्येन्द्र से उसे छोड़ देने की गुहार लगाती रही। पर सत्येन्द्र रुका नहीं। मेनका अपनी सारी ताकत लगा चुकी थी। उसका शरीर शिथिल पड़ने लगा था। वह सत्येन्द्र के वश में हो चुकी थी। इस बात का आभास होते ही सत्येन्द्र नर्म पड़ने लगा। उसके स्पर्श में कोमलता आने लगी। उसके शीतल स्पर्श से मेनका पिघलने सी लगी। सत्येन्द्र के नाजुक आलिंगन से मेनका का डर हारने लगा और वे एक हो गए।
सुबह जब सत्येन्द्र उठा तो उसने देखा कि सोती हुई मेनका के चेहरे पर एक मुस्कान फैली हुई है। वह काफी देर तक उसे निहारता रहा। जब मेनका की आँख खुली तो उसने सत्येन्द्र को अपने सामने पाया। वह मुस्कुराई और उससे लिपट गई। फिर अपने तो पीछे करते हुए बोली, “वो क्या था?”
“तुम्हारे डर का इलाज़” कह कर सत्येन्द्र हँस दिया।
“इलाज़ तक तो ठीक है। पर कहीं प्रेम व्रेम का चक्कर तो नहीं है?”
“मेरे प्रेम का कुआँ तो स्नेहलता ने भर रखा है। वहाँ रत्ती भर भी जगह नहीं है मेनका।”
“होनी भी नहीं चाहिए। मैं चोर नहीं कहलाना चाहती।”
“तो मतलब यह पहली और आखिरी बार था।”
“अगर संबंध में किसी बन्धन की विवशता नहीं है तो मुझे ऐसे संबंधों कोई ऐतराज़ नहीं है।”
“मुझे भी नहीं”, कह कर सत्येन्द्र मेनका से लिपट गया।
अगले पाँच दिन कलकत्ते में कैसे गुजरे पता ही नहीं चला। मेनका को तो मानो पँख लग गए थे। बलपुर्वक वशीकरण और फिर स्नेह से भरपूर प्रेम क्रीडा रोज का सिलसिला बन गया। कोमल हृदय सत्येन्द्र भी इस अनुभव के जरिए अपने एक नए रूप से रूबरू हो रहा था। अपने को हमेशा एक शान्त व्यक्ति के रूप में देखा था उसने। उसे लगता था की आक्रामकता उसका स्वाभाविक व्यवहार नहीं हैं। पर ‘जीत’ का जोश और उसके उपरान्त मिलने वाला नितांत सुख उसकी राय बदल रहा था। शायद पुरुष होना इसी को कहते हैं। अगर यह प्राकृतिक है तो वह इसे बदलना नहीं चाहता था। बदलाव में श्रम व्यय कर क्या फायदा अगर उस बदलाव का कोई फायदा ना हो। अभी तो ना बदलना ही उसे स्वाभाविक व फायदेमंद लग रहा था।
दिल्ली पहुँच कर यह सिलसिला कुछ दिनों तक बन्द रहा। वे एक दूसरे की मौजूदगी में थोड़ा सकपका से जाते। यह बात स्नेहलता को भी खटकी तो उसने एक दिन पूछ ही लिया, “क्या हुआ? तुम दोनों थोड़ी अजीब सी हरकतें करने लगे हो?”
दोनों एक साथ बोल पड़े, “कुछ भी तो नहीं!” फिर दोनों ने एक दूसरे को देखा और जोर से हँस दिए। स्नेहलता भी हँसने लगी। फिर अचानक बोली, “मुझे बाज़ार जाना है। एक आध घंटे में आती हूँ। मेनका, तुम कहीं मत जाना। आज बाहर खाना खाने चलेंगे। बड़े दिन से करीमस् नहीं गए हैं।”
“ठीक है दी”, मेनका बोली और अपनी डायरी ले कर बैठक के एक कोने में बैठ गई।
स्नेहलता के जाने के बाद दरवाज़ा बन्द कर सत्येन्द्र मेनका के पास आया और उसे गुदगुदी करते हुए बोला, “कुछ नहीं! हाँ! कुछ नहीं!”
“मत करो प्लीज। मुझे नोट्स बनाने हैं।”
“मतलब मुझे जबरदस्ती करनी पड़ेगी?”
“अरे सच कह रही हूँ। मुझे नोट्स बनाने हैं।”
पर सत्येन्द्र अपना मन बना चुका था। वह मेनका तो यहाँ वहाँ छूने लगा। मेनका ने विरोध जताया तो वह आक्रामक हो गया। मेनका मना करती रही, अपने को छुड़ाने के लिए ताकत लगाती रही पर सत्येन्द्र उसे वश में करने को आतुर था। आखिरकार उसने मेनका को वश में कर ही लिया और कलकत्ते में शुरू हुआ वह सिलसिला दिल्ली का भी दस्तूर बन गया। जब कभी मौका मिलता वे एक दूसरे के आगोश में खो जाते।
उस दिन स्नेहलता सेमिनार के लिए भोपाल गई थी। सत्येन्द्र के जिद करने पर मेनका रात को सत्येन्द्र के घर पर ही रुक गई। दिल्ली में पहली बार वे साथ साथ रात गुज़ार रहे थे। देर रात तक वे यहाँ वहाँ की बातें करते रहे फिर अचानक मेनका ने पूछा, “पहले पहल तो ठीक था पर हर बार क्यों जोर जबरदस्ती करते हो?”
“बस यूँ ही। अच्छा लगता है।”
“अपने कथन और लेखन से तो आपने पैट्रिआरकी को अलग कर दिया पर दिल के किसी कोने में वह शायद अब भी जिन्दा है। क्या कहते हो हिन्दी में आप पैट्रिआरकी को?”
“पितृसत्ता!”
“हाँ, पितृसत्ता! लगता है आप उसे पूरी तरीके से मार नहीं पाए?”
“नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैं कोई बलात्कार थोड़े ही कर रहा हूँ। इसमें तुम्हारी भी तो रजामंदी है।”
“आपको कैसे पता? मैं तो हमेशा मना करती रहती हूँ!”
“पता चल जाता है! इतना भी गया गुज़ारा नहीं हूँ जितना तुम सोच रही हो। फर्क करना आता है मुझे।”
“मतलब जब मैं सच में ना कहूँगी तो आप समझ जाएँगे?”
“कोई शक?”
“शक तो है”, मेनका मुस्कुराते हुए बोली. “देखते हैं! आप भी यहीं हैं और मैं भी।”
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